Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन भी समानता ही है। क्षेत्र और स्वामी की दृष्टि से भी सीमा की न्यूनाधिकता है । कोई ऐसा मौलिक अन्तर नहीं दीखता जिसके कारण दोनों को स्वतन्त्र ज्ञान कहा जा सके । दोनों ज्ञान आंशिक आत्म-प्रत्यक्ष की कोटि में हैं। मति और श्रुतज्ञान के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। केवलज्ञान : __ यह ज्ञान विशुद्धतम है । मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के क्षय से कैवल्य प्रकट होता है ।' मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय क्षायोपशमिक ज्ञान हैं । केवलज्ञान क्षायिक है। केवलज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म हैं-मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय । यद्यपि इन चारों कर्मों के क्षय से चार भिन्न-भिन्न शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, किन्तु केवलज्ञान उन सबमें मुख्य है, इसलिए उपर्युक्त वाक्य का प्रयोग किया गया है। सर्वप्रथम मोह का क्षय होता है। तदनन्तर अन्तमुहूर्त बाद ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय-इन तीनों कर्मों का क्षय होता है। तदनन्तर केवलज्ञान पैदा होता है और उसके साथ-ही-साथ केवलदर्शन आदि तीन अन्य शक्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं । केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय हैं। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे केवलज्ञानी न जानता हो। कोई भी पर्याय ऐसा नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। जितने भी द्रव्य हैं और उनके वर्तमान, भूत और भविष्य के जितने भी पर्याय हैं, सब केवलज्ञान के विषय हैं। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास या आविर्भाव केवलज्ञान है। इस ज्ञान के होते ही जितने छोटे-मोटे क्षायोपशमिक ज्ञान हैं, सब
१. तत्त्वार्थसूत्र, १०. १. २. सर्व द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । -तत्त्वार्थसूत्र, १.३०.
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