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सापेक्षवाद
'स्याद्वाद' के लिए प्राकृत रूप 'सियावाओ' है।' इसके लिए एक और हेतु दिया गया है कि यदि इस 'सियावाओ' शब्द पर ध्यान दिया जाय तो उपर्युक्त गाथा में अस्यावाद वचन के प्रयोग का ही निषेध मानना ठीक होगा, क्योंकि यदि टीकाकार के मतानुसार आशीर्वाद वचन के प्रयोग का निषेध माना जाय तो कथानकों में जो 'धर्मलाभ' रूप आशीर्वाद का प्रयोग मिलता है वह असंगत सिद्ध होगा। यह हेतु विशेष महत्त्व नहीं रखता। 'धर्मलाभ' को आशीर्वाद कहना ठीक वैसा ही है जैसा मुक्ति की अभिलाषा को राग कहना। जो लोग मोक्षावस्था को सुखरूप नहीं मानते हैं वे सुखरूप मानने वाले दार्शनिकों के सामने यह दोष रखते हैं कि सुख की अभिलाषा तो राग है और राग बन्धन का कारण है, न कि मोक्ष का, अतः मोक्ष सुखरूप नहीं हो सकता। सुख की अभिलाषा को जो राग कहा गया है वह सांसारिक सुख की दृष्टि से है, न कि मोक्षरूप शाश्वत सुख की दृष्टि से । इस सिद्धान्त से अपरिचित लोग ही मोक्ष की अभिलाषा को राग कहते हैं। आशीर्वाद भी सांसारिक ऐश्वर्य और सुख की प्राप्ति के लिए ही होता है। धर्म के लिए कोई आशीर्वाद नहीं होता। 'धर्मलाभ' या 'धर्म की जय' आशीर्वाद नहीं है । यह तो सत्य की अभिव्यक्ति है-सत्यपथ का निदर्शन है। तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त हेतु में कोई खास बल नहीं है। व्याकरण के प्रयोगों के अध्ययन के आधार पर सम्भवतः 'न चास्याद्वाद' पद का औचित्य सिद्ध हो सकता है। जो कुछ भी हो, यह तो निर्विवाद सिद्ध है कि 'स्यात्' पूर्वक वचन
१. वही, ८. २. १०७.
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