Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सापेक्षवाद
३६५ हैं। महावीर ने इन चार भंगों को अधिक महत्त्व दिया । यद्यपि आगमों में इनसे अधिक भंग भी मिलते हैं, तथापि ये चार भंग मौलिक हैं, अतः इनका अधिक महत्त्व है । इन भंगों में अवक्तव्य का स्थान कहीं तीसरा है' तो कहीं चौथा है । ऐसा क्यों ? इसका उत्तर हम पहले ही दे चुके हैं कि जहाँ अस्ति और आस्ति इन दो भंगों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है और जहाँ अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति (उभय ) तीनों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है । इन चार भंगों के अतिरिक्त अन्य भंग भी मिलते हैं किन्तु वे इन भंगों के किसी-न-किसी संयोग से ही बनते हैं। ये भंग किस रूप में आगमों में मिलते हैं, यह देखें । भंगों का आगमकालीन रूप :
भगवतीसूत्र के आधार पर हम स्याद्वाद के भंगों का स्वरूप समझने का प्रयत्न करेंगे । गौतम महावीर से पूछते हैं : भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य ? इसका उत्तर देते हुए महावीर कहते हैं :
१. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है ।
२. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा नहीं है । ३. रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् अवक्तव्य है । यह कैसे ?
१. आत्मा के आदेश से आत्मा है । २. पर के आदेश से आत्मा नहीं है । ३. उभय के आदेश से अवक्तव्य है ।
१. भगवतीसूत्र, १२.१०.४६६.
२. आप्तमीमांसा, १६.
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