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जैन धर्म-दर्शन (अवक्तव्य), उभय ( अस्तिनास्ति ), अस्ति-अवक्तव्य, नास्तिअवक्तव्य, अस्ति-नास्ति-अवक्त-य ।
इन सात में भी प्रथम चार मुख्य हैं-अस्ति, नास्ति, अनुभय और उभय । इन चार में भी दो मौलिक हैं-अस्ति और नास्ति । तत्त्व के मुख्य रूप से दो पहलू हैं। दोनों परस्पराश्रित हैं। 'अस्ति' नास्तिपूर्वक है और 'नास्ति' अस्तिपूर्वक । बाद के दार्शनिकों ने सात भंगों पर ही विशेष भार दिया एवं स्याद्वाद और सप्तभंगी एकार्थक हो गये । भंग सात ही क्यों होते हैं, अधिक या कम क्यों नहीं होते, इसका भी समाधान करने का प्रयत्न किया गया। जैन दर्शन की मौलिक धारणा अस्ति और नास्तिमूलक ही है। चार और सात भंग तो अस्ति और नास्ति की ही विशेष अवस्थाएं हैं । अस्ति और नास्ति एक नहीं हो सकते, क्योंकि दोनों विरोधी धर्म हैं। सप्तभंगी:
वस्तु के अनेक धर्मों के कथन के लिए अनेक शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। किसी एक धर्म का कथन किसी एक शब्द से होता है। हमारे लिए यह सम्भव नहीं कि अनेकान्तात्मक वस्तु के सभी धर्मों का वर्णन कर सकें, क्योंकि एक वस्तु के सम्पूर्ण वर्णन का अर्थ है-सभी वस्तुओं का सम्पूर्ण वर्णन । सभी वस्तुएं परस्पर सम्बन्धित हैं, अतः एक वस्तु के कथन के साथ अन्य वस्तुओं का कथन अनिवार्य है। ऐसी अवस्था में वस्तु का ज्ञान या कथन करने के लिए हम दो दृष्टियों का उपयोग करते हैं । इनमें से एक दृष्टि सकलादेश कहलाती है और दूसरी विकलादेश । सकलादेश का अर्थ है किसी एक धर्म के साथ अन्य धर्मो का अभेद करके वस्तु का वर्णन करना। दूसरे शब्दों में, एक गुण में अशेष वस्तु का संग्रह
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