Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सापेक्षवाद में आरोप करना द्रव्यनिक्षेप है। वर्तमानकालीन योग्यता का निर्देश भावनिक्षेप है। इन चारों निक्षेपों में रहने वाला जो विवक्षित अर्थ है वह स्वरूप अथवा स्वात्मा कहलाता है। स्वात्मा से भिन्न अर्थ परात्मा या पररूप है। विवक्षित अर्थ की दृष्टि से घट है और तदितर दृष्टि से घट नहीं है। यदि इतर दृष्टि से भी घट हो तो नामादि व्यवहार (निक्षेप) का उच्छेद हो जाय ।
स्वरूप का दूसरा अर्थ यह है कि विवक्षित घटविशेष का जो प्रतिनियत संस्थानादि है वह स्वात्मा है । दूसरे प्रकार का संस्थानादि परात्मा है । प्रतिनियत रूप से घट है । इतर रूप से नहीं। यदि इतर रूप से भी घट हो तो सब घटात्मक हो जाय । पट आदि किसी का स्वतन्त्र अस्तित्व न रहे।
काल की अपेक्षा से भी स्वात्मा और परात्मा का अर्थग्रहण होता है। घट की पूर्व और उत्तर कालों में रहने वाली कुशल, कपालादि अवस्थाएं परात्मा है। तदन्तरालवर्ती अवस्था स्वारमा है। घट कुशूल, कपालादि की अन्तरालवर्ती अवस्था की दृष्टि से सत् है, कुशूल, कपालादि अवस्थाओं की दृष्टि से सत् नहीं है । यदि इन अवस्थाओं की दृष्टि से भी सत् होता तो उस समय ये भी उपलब्ध होतीं। कपालादि अवस्थाओं के लिए पुरुष को प्रयत्न न करना पड़ता। __ स्वात्मा और परात्मा का एक अर्थ यह भी है कि प्रतिक्षणभावी द्रव्य की जो पर्यायोत्पत्ति है वह स्वात्मा है और अतीत एवं अनागत पर्यायविनाश तथा पर्यायोसत्ति है वह परात्मा है। प्रत्युत्पन्न पर्याय की अपेक्षा से घट है और अतीत एवं अनागत पर्यायों की अपेक्षा से घट नहीं है। यदि अतीत एवं अनागत पर्यायों की अपेक्षा से घट सत् हो तो एक ही
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