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सापेक्षवाद
३७५ करना सकलादेश है।' उदाहरण के लिए किसी वस्तु के अस्तित्व धर्म का कथन करते समय इतर धर्मों का अस्तित्व में ही समावेश कर लेना सकलादेश है। 'स्थादस्तिरूपमेव सर्वम्' ऐसा जब कहा जाता है तो उसका अर्थ होता है सभी धर्मों का अस्तित्व से अभेद । अस्तित्व के अतिरिक्त अन्य जितने भी धर्म हैं, सब किसी दृष्टि से अस्तित्व से अभिन्न हैं, अत: 'कथंचित् सब है ही' (स्यादस्त्येव सर्वम्) यह कहना अनेकान्तवाद की दृष्टि से अनुचित नहीं है । एक धर्म में सारे धर्मो का समावेश या अभेद कैसे होता है ? किस दृष्टि से एक धर्म अन्य धर्मो से अभिन्न है ? इसका समाधान करने के लिए कालादि आठ दृष्टियों का आधार लिया जाता है। इन आठ दृष्टियों में से किसी एक के आधार पर एक धर्म के साथ अन्य धमा का अभेद कर लिया जाता है और इस अभेद को दृष्टि में रखते हुए ही उस धर्म का कथन सम्पूर्ण वस्तु का कथन मान लिया जाता है। यही सकलादेश है। विकलादेश में एक धर्म की ही अपेक्षा रहती है और शेष की उपेक्षा। जिस धर्म का कथन अभीष्ट होता है वही धर्म दृष्टि के सामने रहता है। अन्य धमों का निषेधं नहीं होता, अपितु उनका उस समय कोई प्रयोजन न होने से ग्रहण नहीं होता। यही उपेक्षाभाव है। नथ का स्वरूप बताते समय इसका विशेष स्पष्टीकरण किया जाएगा । अब हम सकलादेश की कालादि आठ दृष्टियों का स्वरूप समझने का प्रयत्न करेंगे।
१. एकगुण मुखे नाशेषवस्तुरूपय ग्रहाल मकलादेशः ।।
~~तत्त्वार्थ राजवातिका, ४.४२.१८.
२. स्याहादरत्नाकर, ४.४४.
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