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जैन धर्म-दर्शन समझते हैं वे स्याद्वाद का स्वरूप ही नहीं जानते। जैन दर्शन के आचार्य बार-बार यह कहते हैं कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, स्याद्वाद अज्ञानवाद नहीं है, स्थाद्वाद अस्थिरवाद या विक्षेपवाद नहीं है । वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है।
उपनिषदों में व बौद्ध त्रिपिटक में तत्त्व के विषय में चार पक्ष किस रूप में मिलते हैं, यह लिख चुके । अब हम जैन आगमों में मिलने वाले चारों पक्षों को देखें। इससे हमें मालूम हो जाएगा कि भारतीय दर्शनशास्त्र की परम्परा में ये चारों पक्ष अति प्राचीन हैं।
भगवतीसूत्र में मिलने वाले कुछ उदाहरण देखिए : [अ] १. आत्मारम्भ
२. परारम्भ ३. तदुभयारम्भ
४. अनारम्भ [आ] १. गुरु
२. लघु ३. गुरुलघु
४. अगुरुलघु
१. सत्य ३. सत्यमृषा
२. मृषा ४. असत्यमृषा
इस विवेचन से स्पष्ट झलकता है कि अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति और अवक्तव्य ये चार भंग प्राचीन एवं मौलिक
१. १.१.१७. २. १.६.७४. ३. १३.७.४६३.
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