Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
३६०
जन धर्म-दर्शन रहते हैं। इन दो विरोधी धर्मों का अपेक्षा-भेद से कथन स्याद्वाद है। उदाहरण के लिए हम सत् को लेते हैं। पहला पक्ष है सत् का । जब सत् का पक्ष हमारे सामने आता है तो उसका विरोधी पक्ष असत् भी सामने आता है । मूल रूप में ये दो पक्ष हैं । इसके बाद तीसरा पक्ष दो रूपों में आ सकता है या तो दोनों पक्षों का समर्थन करके या दोनों पक्षों का निषेध करके । जहाँ सत् और असत् दोनों पक्षों का समर्थन होता है वहाँ तीसरा पक्ष बनता है सदसत् का । जहाँ दोनों पक्षों का निषेध होता है वहाँ तीसरा पक्ष बनता है अनुभय अर्थात् न सत् न असत । सत्, असत्, और अनुभय इन तीन पक्षों का प्राचीनतम आभास ऋग्वेद के नासदीयसूक्त में मिलता है। उपनिषदों में दो विरोधी पक्षों का समर्थन मिलता है। 'तदेजति तनेजति", 'अणोरणीयान् महतो महीयान्', 'सदसद्वरेण्यम्' आदि वाक्यों में स्पष्टरूप से दो विरोधी धर्म स्वीकृत किये गये हैं। इस परम के अनुसार तीसरा पक्ष उभय अर्थात् सदसत् का बनता है । जहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध किया गया वहाँ अनुभय का चौथा पक्ष बन गया। इस प्रकार उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत् और अनुभय ये चार पक्ष मिलते हैं । अनुभय पक्ष अवक्तव्य के नाम से भी प्रसिद्ध है । अवक्तव्य के तीन अर्थ हो सकते हैं-१. सत् और असत् दोनों का निषेध करना, २. सत्, असत् और सदसत् तीनों का निषेध करना, ३. सत् और असत् दोनों को अक्रम से अर्थात् युगपद् स्वीकृत करना। १. ईशोपनिषद्, ५. २. कठोपनिषद्, १.२.२०. ३. मुण्डकोपनिषद, २.२.१. ४. 'न सन्नचासत्'-श्वेताश्वतरोपनिषद्, ४.१५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org