Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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शानमीमांसा
२८५ समाप्त हो जाते हैं। मति आदि क्षायोपशमिक ज्ञान आत्मा के अपूर्ण विकास के द्योतक हैं। जब आत्मा का पूर्ण विकास हो जाता है तब इनकी स्वतः समाप्ति हो जाती है। पूर्णता के साथ अपूर्णता नहीं टिक सकती। दूसरे शब्दों में, पूर्णता के अभाव का नाम ही अपूर्णता है। पूर्णता का सद्भाव अपूर्णता के असद्भाव का द्योतक है। केवलज्ञान सकल-प्रत्यक्ष हैसम्पूर्ण है, अतः उसके साथ मति आदि अपूर्ण ज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन की केवलज्ञान-विषयक मान्यता व्यक्ति के ज्ञान के विकास का अन्तिम सोपान है। केवलज्ञानी को सर्वज्ञ भी कहते हैं।
सर्वज्ञ का शाब्दिक अर्थ है सब-कुछ जाननेवाला । जिसका ज्ञान अमुक पदार्थों तक ही सीमित नहीं होता अपितु जिसे समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है उसे सर्वज्ञ कहते हैं । समस्त पदार्थों का ज्ञान भी केवल वर्तमान काल तक ही सीमित नहीं रहता अपितु सम्पूर्ण भूत एवं भविष्यत्काल तक भी जाता है। इसी बात को जैन पारिभाषिक पदावली में यों कहा गया है कि सर्वज्ञ समस्त द्रव्यों एवं पर्यायों को जानता है। ___असर्वज्ञ अर्थात् सामान्य प्राणी का ज्ञान इन्द्रियों एवं मन पर आधृत होता है। सर्वज्ञ के ज्ञान का सम्बन्ध सीधा आत्मा से होता है अर्थात् वह इन्द्रियों एवं मन से निरपेक्ष आत्मा से ही ज्ञान प्राप्त करता है। जब तक वह सशरीर रहता है तब तक इन्द्रियाँ उसके साथ रहती अवश्य हैं किन्तु ज्ञान की प्राप्ति के लिए वे निरर्थक ही होती हैं। ऐसा होते हुए भी उसे रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होता है।
सर्वज्ञता का विचार करते समय हमारे सन्मुख दो महत्त्वपूर्ण
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