Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन • दोष या व्यभिचार आ सकता है तो अनुमानादि में भी वैसी संभावना हो सकती है। ऐसी स्थिति में एक को प्रमाण मानना और दूसरे को अप्रमाण मानना युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता। जिस यथार्थता के कारण प्रत्यक्ष में प्रमाणता की स्थापना की जा सकती है उसी यथार्थता को दृष्टि में रखते हुए अनुमानादि को भी प्रमाण कहा जा सकता है।
वैशेषिक और सांख्य तीन प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । नैयायिक चार प्रमाण स्वीकार करते हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान । प्राभाकर पाँच प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति। भाट्ट इससे भी आगे बढ़ते हैं। वे प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव-ये छः प्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन-सम्मत दोनों प्रमाणों में ये सब प्रमाण समा जाते हैं। प्रत्यक्ष को अन्य दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी प्रमाण मानता है। अनुमान जैन दर्शन-सम्मत परोक्ष का एक भेद है । आगम भी परोक्ष का ही एक प्रकार है। उपमान भी परोक्ष प्रमागान्तर्गत है । अर्थापत्ति अनुमान से भिन्न नहीं। अभाव प्रत्यक्ष का ही एक अंश है। वस्तु भाव और अभाव उभयात्मक हैं। दोनों का ग्रहण प्रत्यक्ष से ही होता है। जहाँ हम किसी के भावांश का ग्रहण करते हैं वहाँ उसके अभावांश का भी अभाव रूप से ग्रहण हो ही जाता है अन्यथा अभावांश का भी भावरूप से ग्रहण होता । वस्तु भाव और अभाव-इन दो रूपों को छोड़कर तीसरे रूप में नहीं मिलती। एक वस्तु जिस दृष्टि से भावरूप है, तदितर दृष्टि से अभावरूप है। जब भावरूप का ग्रहण होता है तब अभावरूप का भी ग्रहण होता है। दोनों प्रत्यक्षग्राह्य हैं। ऐसी स्थिति में अभावग्राहक भिन्न प्रमाण की आवश्यकता नहीं रह जाती। अभाव की दूसरी तरह से परीक्षा करें। इस
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