Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
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प्रयोग कर रहा है, अमुक प्रकार की उसकी चेष्टाएं हैं अतः उसके मन में इस समय यह भावना काम कर रही है इस प्रकार दूसरे की चेष्टा का ज्ञान करना प्रत्यक्ष से सम्भव नहीं । 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमानादि परोक्ष नहीं इस प्रकार का निषेध भी प्रत्यक्ष के आधार पर नहीं किया जा सकता । इस प्रकार बिना अनुमान के न तो कोई व्यवस्था हो सकती है, न दूसरे का अभिप्राय जाना जा सकता है, न स्वपक्ष की सिद्धि अथवा परपक्ष का निषेध ही हो सकता है ।" इन्हीं सब कठिनाइयों को सामने रखते हुए जैन दार्शनिक अनुमानादिरूप परोक्ष प्रमाण को भी मान्यता देते हैं तथा जो लोग केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं उनकी मान्यता का विरोध करते हैं ।
जो ज्ञान यथार्थ होता है अर्थात् अर्थ के अनुकूल होता है वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है । प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सब के लिए यह सिद्धान्त समानरूप से ग्राह्य है । द्विचन्द्रज्ञान प्रत्यक्ष होते हुए भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह ज्ञान यथार्थ नहीं है । उसका विषय चन्द्र तो एक है किन्तु ज्ञान में दो चन्द्रो का प्रतिभास होता है। ज्ञान और अर्थ में अनुकूलता नहीं है । अतः वह ज्ञान मिथ्या है । इसी प्रकार अनुमानादिजन्य ज्ञान भी मिथ्या हो सकता है । जिस प्रकार एक प्रत्यक्ष ज्ञान के मिथ्या होने से सारे प्रत्यक्ष ज्ञान मिथ्या नहीं हो जाते उसी प्रकार अनुमानादि में एक जगह व्यभिचार होने से सारे ज्ञान व्यभिचारी नहीं हो जाते । प्रत्यक्ष की तरह अर्थानुकूल उत्पन्न होने से अनुमानादि अव्यभिचारी हैं । यदि कहीं-कहीं प्रत्यक्ष में १. व्यवस्थान्यधीनिषेधानां सिद्धेः प्रत्यक्षेतरप्रमाणसिद्धि: ।
--प्रमाणमीमांसा, १.१.११.
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