Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
विचार किया गया है । द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है। क्षेत्र की दृष्टि से भी लोक सान्त है, क्योंकि सकल आकाश में के कुछ क्षेत्र में ही लोक है। वह क्षेत्र असंख्यात कोटाकोटि योजन की परिधि में है। काल की दृष्टि से लोक अनन्त है, क्योंकि वर्तमान, भूत और भविष्यत् का कोई क्षण ऐसा नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। भाव की दृष्टि से भी लोक अनन्त है, क्योंकि एक लोक के अनन्त पर्याय हैं । महावीर ने सान्तता और अनन्तता का अपनी दृष्टि से उपयुक्त समाधान किया। बुद्ध ने सान्तता और अनन्तता दोनों को अव्याकृत कोटि में रखा।। . बुद्ध ने जीव की नित्यता और अनित्यता के प्रश्न को भी अव्याकृत कोटि में रखा। महावीर ने इस प्रश्न का स्याद्वाद दृष्टि से समाधान किया। उन्होने मोक्ष-प्राप्ति के लिए इस प्रकार के प्रश्नों का ज्ञान भी आवश्यक माना। आचारांग के प्रारम्भिक कुछ वाक्यों से इस बात का पता लगता है-जब तक यह मालूम न हो जाय कि मैं अर्थात् मेरा जीव एक गति से
णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ। आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ। परिक्खेवेणं पन्नत्ता। अत्थि पुण सअंते । कालओ णं लोए ण कयावि न आसी, न कयावि न भवति, न कयावि न भविस्सति, भविसु य भवति य भविस्सइ य, धुवे णितिए सासते अक्खए अन्वा अवट्ठिए णिच्चे, णस्थि पुण से अंते। भावओ णं लोए अणता वण्णपज्जवा · गध० रस० फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणता गुरु य लहु य पउजवा, अणता अगुरु य लहु य पाजवा, नस्थि पुण से अंते। से तं ख दगा ! दवओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सते, कालतो लोए अणते, भावओ लोए अणते । -भगवतीसूत्र, २.१.६०..
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