________________
३४४
जैन धर्म-दर्शन
सापेक्षवाद है । परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है ? पदार्थ में वे किस ढंग से रहते हैं ? हमारी प्रतीति से उनका क्या साम्य है ? इत्यादि प्रश्नों का आगमों के आधार पर विचार करें ।
नित्यता और अनित्यता :
बुद्ध के विभज्यवाद का स्वरूप हम देख चुके हैं । कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें बुद्ध ने अव्याकृत कहा है । वे प्रश्न विभज्यवाद के अन्तर्गत नहीं आते। ऐसे प्रश्नों के विषय में बुद्ध ने न 'हाँ' कहा, न 'ना' कहा । लोक की नित्यता और अनित्यता के विषय में भी बुद्ध का यही दृष्टिकोण है ।" महावीर ने ऐसे प्रश्नों के विषय में मौन धारण करना उचित न समझा । उन्होंने उन प्रश्नों का विविधरूप से उत्तर दिया । लोक नित्य है या अनित्य ? इस प्रश्न का उत्तर महावीर ने यों दिया
जमालि ! लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी। तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं मिल सकता जब लोक न हो, अतएव लोक शाश्वत है ।
लोक सदा एकरूप नहीं रहता । वह अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में बदलता रहता है। अतएव लोक अशाश्वत भी है ।
महावीर ने प्रस्तुत प्रश्न का दो दृष्टियों से उत्तर दिया है।
१. मज्झिमनिकाय, चूलमालंक्यसुत्त.
२. असासए चोए जमाली ! जओ ओसप्पिणी भविता उस्सप्पिणी सब उस्राणि भविता ओसपिणी भवइ ।
- भगवतीसूत्र, ६.६.३८७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org