Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सापेक्षवाद
३४६ गया है वैसे ही नारक जीव को भी नारकादि पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य कहा गया है।।
जीव की नित्यता विषयक स्थिति को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझने के लिए एक और संवाद का उल्लेख करते हैं। महावीर जमालि को यह बात समझा रहे हैं :
तीनों कालों में ऐसा कोई क्षण नहीं, जब कि जीव न हो। इसीलिए जीव ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है"। जीव नारकावस्था का त्याग कर तिथंच अवस्था को प्राप्त करता है, तियंच मिट कर मनुष्य होता है, मनुष्य से देव होता है। इन विभिन्न भवस्थाओं की दृष्टि से जीव अनित्य है। एक अवस्था का त्याग और दूसरी अवस्था का ग्रहण अनित्यता के बिना नहीं हो सकता।'
लोक की नित्यता-अनित्यता के लिए जो हेतु दिया गया है, ठीक वही हेतु यहाँ पर भी उपस्थित किया गया है। तीनों कालों में जीव जीवरूप में रहता है, अतः वह नित्य है। उसकी विविध अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, इसलिए वह अनित्य है।
बुद्ध का जीव की सान्तता और अनन्तता के विषय में वही दृष्टिकोण है जो नित्यता और अनित्यता के विषय में था। महावीर ने इस विषय का अपनी दृष्टि से प्रतिपादन किया। १. सासए जीवे जमाली ! जं न कयाइ णासी, णो कयावि न भवति,
ण कयावि ण भविस्सई, भुवि च भवई य भविस्साह य, धुवे णितिए सासए अक्खए अव्वर अवट्ठिए णिच्चे । असासए जीवे जमाली! जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खनोणिए भवइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, मणुस्से भविता देवे भवइ। -भगवतीसूत्र, ६. ६. ३५७; १. ४. ४२.
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