Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
इतिहास, संविधान आदि अनेक विषयों के अनगिनत ऐसे छोटेबड़े ग्रन्थ मिल सकेंगे जो सर्वानुमत हों अर्थात् जिनकी प्रामाणिकता सब मानते हों। क्या उन सब ग्रन्थों को शास्त्र नहीं कह सकेंगे ? विपरीत इसके ऐसे अनेक शास्त्रसंज्ञक ग्रन्थ मिलेंगे जिनकी प्रामाणिकता अंशतः अथवा पूर्णतः खंडित हो चुकी है। ऐसी अवस्था में किसी ग्रन्थ को शास्त्र नाम मिल जाने मात्र से वह प्रामाणिक नहीं हो जाता । इसी प्रकार कोई ग्रन्थ केवल इसलिए अप्रामाणिक नहीं हो जाता कि उसकी शास्त्र संज्ञा नहीं है । किसी ग्रन्थ की शास्त्र संज्ञा होना या न होना उसकी प्राचीनता, प्रसिद्धि ग्रन्थकार का व्यक्तित्व, अनुयायियों की श्रद्धा, परम्परा का प्रभाव आदि अनेक बातों पर निर्भर है। यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक शास्त्र नामधारी ग्रन्थ प्रामाणिक ही हो तथा प्रत्येक इतर ग्रन्थ अप्रामाणिक ही हो । शास्त्र भी अंशत: अथवा पूर्णत प्रामाणिक एवं अप्रामाणिक हो सकते हैं तथा अन्य ग्रन्थ भी । समस्त ग्रन्थों की प्रामाणिकता - अप्रामाणिकता तद्-तद्गत गुण-दोषों पर निर्भर है । प्रामाणिकता अप्रामाणिकता का आधार व्यक्ति के प्रत्यक्षादि ज्ञानसाधन हैं जिनकी सहायता से अनेक बातें निर्विवाद रूप से सिद्ध होती हैं । पूर्वाग्रहहित मध्यस्थ भाव से किसी तथ्य को स्वीकार करनेवाला जनसमुदाय प्रत्यक्षादिसिद्ध बातों को सहज तौर से स्वीकार कर लेता है। यदि ऐसे लोगों द्वारा मान्य प्रत्यक्षादिसिद्ध सिद्धान्तों एवं तथ्यों को भी सत्य न माना जाय तो सत्य की सार्वजनीन कसौटी ही समाप्त हो जाय । जो तथ्य स्पष्ट नहीं हैं अथवा संदिग्ध हैं उनके विषय में विवाद अथवा मान्यता- भेद के लिए पूर्ण अवकाश है किन्तु जो बातें सुस्पष्ट हैं, सुसिद्ध हैं, सुप्रत्यक्ष हैं, सुविदित हैं, सुमान्य हैं उनके
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