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ज्ञानमीमांसा
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बारे में केवल कल्पनाजन्य तर्कों अथवा शास्त्रों एवं ग्रन्थों की सहायता से अन्यथा मत निर्धारण करना निरर्थक है । ___ अधिकांश प्राचीन शास्त्रों अथवा ग्रन्थों में जो सामग्री रहती है वह प्रायः तीन आधारों पर आवृत होती है : १. परम्परा, २. स्वानुभव, ३. विचार अथवा कल्पना । आधुनिक ग्रन्थों में भी इस प्रकार की सामग्री उपलब्ध होती है। जो सामग्री परम्परा से प्राप्त होती है वह उस समय तक चली आनेवाली मान्यताओं एवं सिद्धान्तों को प्रस्तुत करती है। संभव है कि वे सब या कुछ मान्यताएं अथवा सिद्धान्त पूर्णतः अथवा अंशतः मिथ्या सिद्ध हो जाएं क्योंकि उनका निर्माण निर्दोष अनुभव, प्रयोग अथवा विचार पर न हुआ हो। ऐसा स्थिति में नयी खोजों अथवा नये अनुभवों के कारण किसी शास्त्र अथवा ग्रन्थ की प्रामाणिकता अंशतः अथवा पूर्णतः दूषित हो जाए तो इसे अस्वाभाविक नहीं समझना चाहिए। हाँ, नये अनुभवों एवं नयी खोजों का साधार एवं सुनिश्चित होना आवश्यक है।
स्वानुभव के आधार पर प्राप्त सामग्री का विशेष महत्त्व होता है। यदि शास्त्रकार अथवा ग्रन्थकार का अनुभव निर्दोष एवं निर्विकार होता है तो उस अनुभव, ज्ञान अथवा प्रतीति का प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से खण्डन नहीं हो सकता। उस ज्ञान के आधार पर निर्मित ग्रन्थ अथवा ग्रन्थांश को किसी भी चुनौती का सामना करने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती। अधिकतर तो यही होता है कि इस प्रकार के ज्ञान को सब तटस्थ विचारक निर्विवाद स्वीकार करते हैं। यदि कोई वस्तुतः निर्दोष है अर्थात् उसमें किसी प्रकार का राग-द्वेषअज्ञान-प्रमाद-अहंकार-भय नहीं है तो उसका कथन मिथ्या हो
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