Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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सापेक्षवाद
__३३७ विभज्यवाद एवं अनेकान्तवाद : ___ मज्झिमनिकाय' में माणवक के प्रश्न के उत्तर में बुद्ध कहते हैं : 'हे माणवक ! मैं विभज्यवादी , एकांशवादी नहीं।' माणवक का प्रश्न था : 'भगवन् ! मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रवजित नहीं । इस विषय में आप क्या कहते हैं ?' बुद्ध ने उत्तर दिया : 'गृहस्थ भी यदि मिथ्यावादी है तो निर्वाणमार्ग का आराधक नहीं हो सकता और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो निर्वाणमार्ग की आराधना नहीं कर सकता। दोनों यदि सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं तो दोनों आराधक हो सकते हैं।' यह उत्तर विभज्यवाद का उदाहरण है। किसी प्रश्न का उत्तर एकान्तरूप से दे देना कि यह ऐसा ही है अथवा यह ऐसा है ही नहीं, एकांशवाद है। बुद्ध ने गृहस्थ और त्यागी की आराधना के प्रश्न को लेकर विभाजनपूर्वक उत्तर दिया, एकान्तरूप से नहीं, इसीलिए बुद्ध ने अपने आपको विभज्यवादी कहा है, एकांशवादी नहीं।
सूत्रकृतांग में भी ठीक इसी शब्द का प्रयोग है। भिक्षु को कैसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए, इसके उत्तर में कहा गया है कि भिक्षु 'विभज्यवाद' का प्रयोग करे ।२ जैन दर्शन में इस शब्द का अर्थ अनेकान्तवाद या स्याद्वाद किया जाता है । जिस दृष्टि से जिस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता हो उस दृष्टि से उसका उत्तर देना स्याद्वाद है। किसी एक अपेक्षा से इस प्रश्न का यह उत्तर हो सकता है। किसी दूसरी अपेक्षा से इसी प्रश्न का यह उत्तर भी हो सकता है। इस प्रकार एक प्रश्न के अनेक उत्तर हो सकते हैं। इसी दृष्टि को स्याद्वाद, सापेक्षवाद, १. सुत्त ६६. २. भिक्खू विभज्जवायं च वियागरेज्जा-१.१४.२२.
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