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जैन धर्म-दर्शन
है अतः उसका ग्रहण करना चाहिए। अमुक वस्तु सदोष है अतः उसका त्याग करना चाहिए। इस प्रकार का विवेक अज्ञान के विनाश से जाग्रत् होता है । यही विवेक सत्कार्य में प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देता है, असत्कार्य से दूर हटने का बोध कराता है । प्रमाण का यह फल ज्ञान से भिन्न नहीं है । पूर्वकालभावी ज्ञान उत्तरकालभावी ज्ञान के लिए प्रमाण है और उत्तरकालभावी ज्ञान पूर्वकालभावी ज्ञान का फल है । यह परम्परा उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है ।
प्रमाण के भेद :
ज्ञान का विवेचन करते समय हमने यह देखा है कि जैन दर्शन मुख्यरूप से ज्ञान के दो भेद मानता है- प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष सीधा आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान है और परोक्ष इन्द्रियादि करणों की सहायता से पैदा होता है। जैन तार्किकों ने इसी आधार पर प्रमाण के भी दो भेद किये हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष ।' बौद्धों ने प्रमाण के जो दो भेद किये हैं उनसे ये भिन्न हैं । प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो भेद न करके बौद्ध तार्किकों ने प्रमाण के प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो भेद किये हैं । 2 जैन दर्शन के अनुसार अनुमान परोक्ष का एक भेद है । इसलिए बौद्ध दर्शन का प्रमाण-विभाजन अपूर्ण है । चार्वाक दर्शन केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा गया है कि केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष के आधार पर हमारा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता । 'यह प्रमाण है, यह प्रमाण नहीं है' यह व्यवस्था अनुमान के अभाव में नहीं हो सकती । 'अमुक व्यक्ति अमुक प्रकार की भाषा का १. प्रमाणं द्विधा । प्रत्यक्षं परोक्षं च । - - प्रमाणमीमांसा, १.१.६-१०. २. प्रत्यक्षमनुमानं च । न्यायबिन्दु, १.३.
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