Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
३२३ तब तक अनुमान की प्रवृत्ति ही असम्भव है। दूसरे शब्दों में,. यदि तर्क ज्ञान नहीं है तो अनुमान की कल्पना ही नहीं हो सकती। अनुमान स्वयं तर्क पर प्रतिष्ठित है। ऐसी अवस्था में तर्क का स्थान अनुमान कैसे ले सकता है। जो ज्ञान जिससे पूर्व उत्पन्न होता है और जिसका आधार होता है वह ज्ञान तद्रूप नहीं हो सकता; अन्यथा पूर्व और पश्चात् का सम्बन्ध ही नष्ट हो जायगा, आधार और आधेय की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी। अतः तके अनुमान से भिन्न है तथा स्वतन्त्र प्रमाण है।
तर्क की व्याख्या करते हुए यह कहा गया कि व्याप्तिज्ञान तर्क है। व्याप्ति क्या है, इसका स्पष्टीकरण बाकी है। 'व्याप्य के होने पर व्यापक होता ही है अथवा व्यापक के होने पर ही व्याप्य होता है-इस प्रकार का जो नियम है वह व्याप्ति है। धूम और अग्नि के उदाहरण से इसे और स्पष्ट कर लें। धूम व्याप्य है और अग्नि व्यापक है। धूम ( व्याप्य ) के होने पर अग्नि ( व्यापक ) होती ही है अथवा अग्नि ( व्यापक ) के होने पर ही धूम ( व्याप्य ) होता है। धूम और अग्नि का यह सम्बन्ध व्याप्ति है। जहाँ व्यापक होता है वहाँ ज्याप्य हो भी सकता है और नहीं भी। जहाँ अग्नि होती है वहाँ धूम हो भी सकता है और नहीं भी। जहां व्याप्य होता है वहाँ व्यापक होता ही है। जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि होती ही है । व्याप्य व्यापक के होने पर ही हो सकता है। धूम अग्नि के होने पर ही हो सकता है । इस प्रकार का जो व्यापक और व्याप्य का
१. व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सति भाव एव, व्याप्यस्य वा तत्रौव भावः ।
-प्रमाणमीमांसा, १.२.६.
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