Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
जैन धर्म-दर्शन ___ लौकिक आगम में जैनेतर शास्त्रों का समावेश है, जैसे रामायण, महाभारत, वेद आदि । लोकोत्तर आगम में जैनशास्त्र आते हैं। • मागम के दूसरी तरह के भेद भी मिलते हैं । इनकी संख्या तीन है-आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थकर अर्थ का उपदेश देते हैं और गणधर उसके आधार से सूत्र बनाते हैं । अर्थरूप आगम तीर्थङ्कर के लिए आत्मागम है और सूत्ररूप आगम गणधरों के लिए आत्मागम है। अर्थरूप आगम गणधरों के लिए अनन्तरागम है क्योंकि तीर्थकर गणधरों को साक्षात् लक्ष्य करके अर्थ का उपदेश देते हैं । गणधरों के शिष्यों के लिए अर्थरूप आगम परम्परागम है क्योंकि उन्हें अर्थ का साक्षात् उपदेश नहीं दिया जाता अपितु परम्परा से प्राप्त होता है । अर्थागम तीर्थंकर से गणधरों के पास जाता है और गणधरों से उनके शिष्यों के पास आता है । सूत्ररूप आगम गणधर-शिष्यों के लिए अनन्तरागम है क्योंकि सूत्रों का उपदेश उन्हें साक्षात गणधरों से मिलता है । गणधर-शिष्यों के बाद में होने वाले आचार्यों के लिए अर्थागम और सूत्रागम दोनों परम्परागम हैं। ___इस विवेचन के आधार पर सहज ही इस निर्णय पर पहुंचा जा सकता है कि जैन आगमों में प्रमाणशास्त्र पर प्रचुर मात्रा में सामग्री बिखरी पड़ी है। जिस प्रकार ज्ञान का विवेचन करने में आगम पीछे नहीं रहे हैं उसी प्रकार प्रमाण की चर्चा में भी पीछे नहीं हैं। ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रामाण्य के विषय में आगमों में अच्छी सामग्री है । यह ठीक है कि बाद में होने वाले दर्शन के आचार्यों ने इसका जिस ढंग से तर्क के आधार पर विचार किया है-पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष के रूप में जिन युक्तियों का आधार लिया है और जैन प्रमाणशास्त्र की नींव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org