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ज्ञानमीमांसा
३११ निर्णय किसी बाह्य पदार्थ के आधार पर ही किया जा सकता है । जो ज्ञान यथार्थ अर्थात् अर्थ से अव्यभिचारी होता है वह प्रमाण है । जो ज्ञान अर्थाव्यभिचारी नहीं होता वह अप्रमाण है । प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की कसौटी बाह्य वस्तु है | ज्ञान स्वतः न तो प्रमाण है और न अप्रमाण । प्रमाण और अप्रमाण का निर्णय तभी होता है जब वह वस्तु से मिलाया जाता है। जैसी वस्तु है वैसा ही ज्ञान होता है तो उसे हम प्रमाण कहते हैं । विपरीत ज्ञान होता है तो उसे हम अप्रमाण कहते हैं । नैयायिकों का यह सिद्धान्त परत:प्रामाण्यवाद है । इसमें प्रामाण्य का निश्चय स्वतः न होकर परत: होता है । सांख्य दर्शन की मान्यता का भी उल्लेख कर देना चाहिए । सांख्यों की मान्यता है कि प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः हैं । अमुक ज्ञान प्रमाण है या अमुक ज्ञान अप्रमाण है, ये दोनों निर्णय स्वतः होते हैं । यह मान्यता नैयायिकों से बिल्कुल विपरीत है । अस्तु, नैयायिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों परतः मानते हैं जब कि सांख्य प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः मानते हैं । जैन दर्शन इन तीनों से भिन्न सिद्धान्त की स्थापना करता है । प्रामाण्यनिश्चय के लिए स्वतः प्रामाण्यवाद और परतः प्रामाण्यवाद दोनों की आवश्यकता है । स्वतः प्रामाण्यवाद के उदाहरण देखिएएक व्यक्ति अपनी हथेली हमेशा देखता है । वह उससे खूब परिचित है । उस व्यक्ति के हथेली-विषयक ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय करने के लिए किसी बाह्य वस्तु की आवश्यकता नहीं होती । हथेली को देखते ही वह व्यक्ति निश्चय कर लेता है कि यह मेरी ही हथेली है । दूसरा उदाहरण पानी का है । एक व्यक्ति को प्यास लगी है। वह पानी पीता है और तुरन्त प्यास बुझ जाती है। प्यास बुझते ही वह समझ लेता है कि
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