Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
३०६ प्रमाण के उपयुक्त लक्षणों को देखने से यह मालूम होता है कि ज्ञान और प्रमाण में अभेद है। ज्ञान का अर्थ सम्यग्ज्ञान है, न कि मिथ्याज्ञान । ज्ञान जब किसी पदार्थ का ग्रहण करता है तो स्वप्रकाशक होकर ही। जैन दर्शन में ज्ञान को स्वपरप्रकाशक माना गया है । ज्ञान का ऐसा स्वभाव है कि वह स्वयं प्रकाशित होकर ही अर्थ का प्रकाश करता है। जो स्वयं अप्रकाशित होता है वह दूसरे को प्रकाशित नहीं कर सकता। दीपक जब उत्पन्न होता है तो घटादि पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ-ही-साथ अपने को भी प्रकाशित करता है। उसको प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं रहती। वह प्रकाश रूप उत्पन्न होकर ही दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है। इसी प्रकार ज्ञान भी प्रकाशरूप है जो स्वप्रकाश के साथ अर्थ को प्रकाशित करता है। इसलिए ज्ञान को स्वपरप्रकाशक कहा गया है । जैन दर्शन में निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। निश्चयात्मक का अर्थ है सविकल्पक । वही ज्ञान प्रमाण हो सकता है जो निश्चयात्मक हो-व्यवसायात्मक हो-निर्णयात्मक हो-सविकल्पक हो। न्यायबिन्दु में निर्विकल्पक ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण कहा गया है। वहाँ कल्पनापोढ़' शब्द है जिसका अर्थ है कल्पना अर्थात् विकल्प से रहित । जैन दर्शन इस सिद्धान्त का खण्डन करता है। वह कहता है कि जो निर्विकल्पक होता है वह प्रमाण-अप्रमाण कुछ नहीं होता। दूसरे शब्दों में, ज्ञान निर्विकल्पक हो ही नहीं सकता। जहाँ विकल्प अर्थात् निश्चय या निर्णय होता है वहीं ज्ञान होता है। ज्ञान भी हो और विकल्प भी न हो, यह कैसे हो सकता है ? निर्विकल्पक उपयोग तो
१. न्याय बिन्दु का प्रथम प्रकरण.
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