________________
३१०
जैन धर्म-दर्शन
दर्शनमात्र है। ज्ञान उसके बाद का उपयोग है । ऐसी स्थिति में ज्ञान निर्विकल्पक कैसे हो सकता है ? प्रमाण और अप्रमाण का निर्णय करने के लिए निश्चयात्मक उपयोग होना आवश्यक है ।
ज्ञान का प्रामाण्य :
देखा |
,
सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण होता है, यह हमने कौन-सा ज्ञान सम्यक है और कौन-सा मिथ्या ? इसका निर्णय करना बाकी है। दूसरे शब्दों में, ज्ञान को जिसके कारण प्रमाण कहा जाता है वह प्रामाण्य क्या है ? प्रामाण्य की कसौटी क्या है जिसके आधार पर हम यह निर्णय कर सकें कि अमुक ज्ञान तो प्रमाण है और अमुक ज्ञान अप्रमाण । प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निर्णय कैसे हो ? जैन तार्किक कहते हैं कि ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय या तो स्वतः होता है या परतः । " किसी परिस्थिति में ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः निश्चित हो जाता है । किसी परिस्थिति में प्रामाण्य - निश्चय के लिए दूसरे साधनों का सहारा लेना पड़ता है । मीमांसक स्वतःप्रामाण्यवादी हैं । नैयायिक परतः प्रामाण्यवादी हैं । मीमांसक कहते हैं कि ज्ञान प्रमाणरूप ही उत्पन्न होता है । उसमें जो अप्रामाण्य आता है वह बाह्य दोष के कारण है। ज्ञान के प्रामाण्यनिश्चय के लिए किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं | प्रामाण्य स्वतः उत्पन्न होता है और ज्ञात होता है । प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वत: है । इसे स्वतः प्रामाण्यवाद कहते हैं । नैयायिक स्वतः प्रामाण्यवाद को नहीं मानते । वे कहते हैं कि ज्ञान प्रमाण है या अप्रमाण, इसका
१. प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा । प्रमाणमीमांसा, १.१.५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org