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३.०५ - जैन धर्म-दर्शन है और बाह्य अर्थ को भी जानता है । ज्ञानरूप प्रमाण के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को भी जाने और अर्थ को भी जाने । अर्थज्ञान में भी पिष्टपेषण न हो अपितु कुछ नवीनता हो। इसलिए अर्थ के पहले 'अपूर्व' विशेषण है। ज्ञान ही प्रमाण क्यों है ? इसका उत्तर देते हुए.कहा गया है कि ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि इष्ट वस्तु का ग्रहण और अनिष्ट वस्तु का त्याग ज्ञान के कारण ही हो सकता है।' ग्रहण और त्यागरूप क्रियाएँ ज्ञान के अभाव में नहीं घट सकतीं। अतः ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है।
वादिदेवसूरि ने प्रमाण का लक्षण यों बताया-स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। इन्होंने अपूर्व विशेषण हटा दिया। अपूर्व अर्थ का हो या पूर्व अर्थ का होकैसा भी ज्ञान हो, यदि वह निश्चयात्मक है तो प्रमाण है। ज्ञान ही यह बता सकता है कि क्या अभीप्सित है और क्या अनभीप्सित है, अतः वही प्राण है ।
आचार्य हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में लिखा-अर्थ का सम्यक् निर्णय प्रमाण है। यहाँ पर 'स्व और पर' ऐसा प्रयोग नहीं है। अर्थ का निर्णय स्वनिर्णय के अभाव में नहीं हो . सकता, अतः अर्थनिर्णय का अविनाभावी स्वनिर्णय स्वतः सिद्ध है । जब स्वनिर्णय होता है तभी अर्थनिर्णय होता है । हेमचन्द्र ने इसी सिद्धान्त को दृष्टि में रखते हुए 'स्वनिर्णय' विशेषण का प्रयोग नहीं किया। १ वही, १.२. २. स्वपरव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, १.२. ३. वही, १. ३. ४. सम्यगर्थ निर्णयः प्रमाणम् ।-प्रमाणमीमांसा, १.१.२.
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