Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा . २६५ केवली में दर्शन और ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, इस प्रश्न के विषय में तीन मत हैं। एक मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान क्रमशः होते हैं। दूसरी मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद् होते हैं। तीसरा मत यह है कि ज्ञान और दर्शन में अभेद है-दोनों एक हैं।
आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि केवली के दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते।' आगम इस विषय में एकमत हैं। वे दर्शन और ज्ञान को युगपद् नहीं मानते।।
दिगम्बर आचार्य दूसरी मान्यता का समर्थन करते हैं। इस विषय में वे सभी एकमत हैं कि केवलदर्शन और केवलज्ञान युगपद् होते हैं। उमास्वाति का कथन है कि मति, श्रुत आदि में उपयोग क्रम से होता है, युगपद् नहीं। कवली में दर्शन
और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपद् होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्टरूप से इसका समर्थन किया है। वे कहते हैं- जिस प्रकार सूर्य में प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं।'४ सर्वार्थसिद्धिकार भी इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। वे कहते हैं-'ज्ञान साकार है, दर्शन अनाकार है। छद्मस्थ में वे
१. सव्वस्स केलिस्स वि जुगनं दो नत्थि उवओगा। -६७३. २. भगवतीसूत्र, १८.८. ३. मतिज्ञानादिषु चतुर्वा पर्यायेणोपयोगो भवति न युगपद् । सम्भिन्नज्ञानदशनस्य तु भगवतः केवलिनो युगपद् .. ..... भवति ।
--तत्त्वार्थभाष्य, १.३१.
४. जुगवं वट्ट इ नाणं, केवलणाणिस्स दसण च तहा । दिणयरपयासताप जह वटइ तह मुणेयन्नं ॥-नियमसार, १५६.
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