Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
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को भिन्न मानने में एक कठिनाई और है । यदि केवली एक ही क्षण में सब कुछ जान लेता है तो उसे हमेशा के लिये सब कुछ जानते रहना चाहिए। यदि उसका ज्ञान हमेशा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ किस बात का ?" यदि उसका ज्ञान सदैव पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही नहीं उठता। वह हमेशा एकरूप है । वहाँ दर्शन और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं । 'ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है' इस प्रकार का भेद आवरणरूप कर्मे के क्षय के बाद नहीं रहता । सविकल्पक और निर्विकल्पक का भेद वहीं होता है जहाँ उपयोग में अपूर्णता होती है। पूर्ण उपयोग में किसी तरह का भेद-भाव नहीं रहता। एक कठिनाई और है । ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है, किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । केवली को जब एक बार सम्पूर्णज्ञान हो जाता है तब पुनः दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता । इसलिए ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता ।
ज्ञान और दर्शन की इस चर्चा के साथ आगम- प्रतिपादित पंचज्ञान की स्वरूप चर्चा समाप्त होती है। ज्ञान से सम्बन्धित एक और विषय है और वह है प्रमाण | कौन-सा ज्ञान प्रमाण है ओर कौन-सा अप्रमाण ? प्रामाण्य का आधार क्या है ?
१. जइ सव्धं सायारं, जाणइ एक्कसमएण सव्वण्णू । जुज्जइ सया वि एवं अहवा सव्व ण याणाइ ॥
-सन्मतितर्क प्रकरण, २.१०.
२. परिसुद्धं सायारं, अवियत्तं दंसणं अणायारं । णय खीणावर णिज्जे, जुज्जइ सुवियत्तमवियत्तं ॥
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३. दंसणपुव्वळ गाणं गाणणिमित्तं तु दंसणं णत्थि । लेण सुविणिच्छियामो, दंसणणाणा अण्णत्तं ॥ वही, २.२२.
- वही, २.११.
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