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जैन धर्म-दर्शन
प्रमाण का क्या फल है ? आदि प्रश्नों का प्रमाण-चर्चा के समय विचार किया जायगा। आगमों में प्रमाणचर्चा :
प्रमाणचर्चा केवल तर्क युग की देन नहीं है । आगमयुग में भी प्रमाणविषयक चर्चा होती थी। आगमों में कई स्थलों पर स्वतन्त्ररूप से प्रमाण-चर्चा मिलती है। ज्ञान और प्रमाण दोनों पर स्वतन्त्ररूप से चिन्तन होता था, ऐसा कहने के लिए हमारे पास पर्याप्त प्रमाण हैं। ___ भगवतीसूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है। गौतम महावीर से पूछते हैं--'भगवन् ! जैसे केवली अन्तिम शरीरी ( जो इसी भव से मुक्त होनेवाला हो) को जानते हैं, वैसे ही क्या छद्मस्थ भी जानते हैं ?' महावीर उत्तर देते हैं'गौतम ! वे अपने-आप नहीं जान सकते। या तो सुनकर जानते हैं या प्रमाण से। किससे सुनकर? केवली से.........। किस प्रमाण से ? प्रमाण चार प्रकार के कहे गए हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। इनके विषय में जैसा अनुयोगद्वार में वर्णन है वैसा यहाँ भी समझना चाहिए।"
स्थानांगसूत्र में प्रमाण और हेतु दोनों शब्दों का प्रयोग मिलता है। निक्षेप पद्धति के अनुसार प्रमाण के निम्न भेद किये गये हैंद्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण । हेतु १. गोयमा ! णो तिणछे समठे । सोच्चा जाणति पासति, पमाणता
वा............."से कि तपमाणे ? पमाणे चउब्बिहे पण्णत्ते तं जहा पच्चवक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे, जहा अणुओगद्दारे..!
-भगवतीसूत्र, ५.४.१६१-१६२. २. चउविहे पमाणे पण्णत्ते, त जहा-दवप्पमाणे, खेत्तप्पमाणे, कालप्पमाणे, भावप्पमाणे।-३२१.
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