Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
प्रश्न उपस्थित होते हैं : १. क्या समस्त पदार्थों अर्थात् सब द्रव्यों और उनके सब पर्यायों का ज्ञान सम्भव है ? २. क्या रूपी पदार्थों का ज्ञान सीधा आमा से हो सकता है ?
जहां तक सब द्रव्यों के ज्ञान का प्रश्न है, यह माना जा सकता है कि लोक में स्थित समस्त तत्त्व अर्थात् द्रग सर्वज्ञ के ज्ञान के विषय हो सकते हैं क्योंकि लोक सीमित है अत: उसमें स्थित तत्त्व भी क्षेत्र की दष्टि से सीमित ही हैं। यदि सर्वज्ञ के ज्ञान में सामान्यरूप से सम्पूर्ण लोक प्रतिभासित होता है तो यह स्वतः सिद्ध है कि लोकस्थित समस्त तत्त्व उसके ज्ञान में प्रतिभासित होंगे ही क्योंकि उन तत्त्वों के संगठन अथवा समुच्चय का नाम ही लोक है। लोक के बाहर अर्थात् अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व नहीं है ( ऐसी जैन दर्शन की मान्यता है )। यह अलोकाकाश असीमित है अर्थात् अनन्त है। असीमित वस्तु किसी के ज्ञान में किस प्रकार एवं कितनी प्रतिभासित होगी, यह समझना कठिन है। यदि वह अपूर्ण प्रतिभासित होगी तो ज्ञान में भी अपूर्णता आ जायगी। यदि वह सम्पूर्ण प्रतिभासित होगी तो उसकी अनन्तता लुप्त हो जायगी अर्थात् वह सीमित हो जायगी क्योंकि ज्ञान में उसका एक सामान्य रूप निश्चित हो जायगा जिससे अधिक वह नहीं हो सकती अर्थात् वह सारी-की-सारी जान ली जायगी जिससे आगे उसका अस्तित्व ही नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में वह सीमित ही हो जायगी, असीमित कैसे रहेगी? जो वस्तु अनन्त होती है उसका अन्तिम छोर तो जाना ही नहीं जा सकता अन्यथा उसकी अनन्तता का कोई अर्थ ही नहीं होगा। यह नहीं हो सकता कि कोई वस्तु ( अस्तित्व की दृष्टि से ) अनन्त भी हो और उसका अन्तिम छोर भी जाना जा सके अर्थात् वह सम्पूर्ण किसी के ज्ञान में प्रतिभासित हो सके । ऐसी
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