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जैन धर्म-दर्शन मन केवल एक सहारा है । जैसे कोई यह कहे कि 'देखो, बादलों में चन्द्रमा है' तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि चन्द्रमा सचमुच बादलों में है । यह तो दृष्टि के लिए एक आधारमात्र है। इसी प्रकार मन भी अर्थ जानने का एक आधारमात्र है। वास्तव में प्रत्यक्ष तो अर्थ का ही होता है । इसके लिए मन के आधार की आवश्यकता अवश्य रहती है। दूसरी परम्परा यह मानने के लिए तैयार नहीं। वहाँ मन का ज्ञान मुख्य है और अर्थ का ज्ञान उस ज्ञान के बाद की चीज है। मन के ज्ञान से अर्थ का ज्ञान होता है, न कि सीधा अर्थज्ञान । मनःपर्यय का अर्थ ही यह है कि मन की पर्यायों का ज्ञान, न कि अर्थ की पर्यायों का ज्ञान।
उपर्युक्त दो परम्पराओं में से दूसरी परम्परा युक्तिसंगत मालूम होती है । मनःपर्ययज्ञान से साक्षात् अर्थज्ञान होना सम्भव नहीं, क्योंकि उसका विषय रूपी द्रव्य का अनन्तवाँ भाग है।' यदि वह मन के सम्पूर्ण विषयों का साक्षात् ज्ञान कर लेता है तो अरूपी द्रव्य भी उसके विषय हो जाते हैं, क्योंकि मन से अरूपी द्रव्य का भी विचार हो सकता है। ऐसा होना इष्ट नहीं। मनःपर्ययज्ञान भूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार करता है और वह भी अवधिज्ञान जितना नहीं। अवधिज्ञान सब प्रकार के पुद्गल द्रव्यों का ग्रहण करता है किन्तु मनःपर्ययज्ञान उनके अनन्तवें भाग अर्थात् मनरूप बने हुए पुद्गलों का मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण करता है। मन का साक्षात्कार हो जाने पर तच्चिन्तित अर्थ का ज्ञान अनुमान से हो सकता है। ऐसा होने पर मन के द्वारा चिन्तित मूर्त, अमूर्त सभी द्रव्यों का ज्ञान हो सकता है। १. तदनन्तभागे मन:पर्यायस्य । -तत्त्वार्थ सूत्र, १. २६.
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