Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
२८१ मनःपर्ययज्ञान के दो प्रकार हैं-ऋजुमति और विपुलमति।' ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर होता है क्योंकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के सूक्ष्मतर परिणामों को भी जान सकता है। दूसरा अन्तर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् उत्पन्न होने के बाद चला भी जाता है किन्तु विपुलमति नष्ट नहीं हो सकता। वह केवलज्ञान की प्राप्ति पर्यन्त अवश्य रहता है ।
मनःपर्ययज्ञान के विषय में दो परम्पराएं चली आ रही हैं। एक परम्परा तो यह मानती है कि मनःपर्ययज्ञानी चिन्तित अर्थ का प्रत्यक्ष कर लेता है। दूसरी परम्परा इसके विपरीत यह मानती है कि मनःपर्ययज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं का तो प्रत्यक्ष करता है, किन्तु उन अवस्थाओं में जो अर्थ रहा हुआ है उसका अनुमान करता है। दूसरे शब्दों में, एक परम्परा अर्थ का ही प्रत्यक्ष मानती है और दूसरी परम्परा मन का तो प्रत्यक्ष मानती है किन्तु अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानती है। मन की विविध परिणतियों को मनःपर्ययज्ञानी प्रत्यक्षरूप से जान लेता है और उन परिणतियों के आधार से उस अर्थ का अनुमान लगाता है जिसके कारण मन का उस रूप से परिणमन हुआ हो। इसी बात को और स्पष्ट करें। पहली परम्परा मन के द्वारा चिन्तित अर्थ के ज्ञान के लिए मन को माध्यम न मान कर सीधा उस अर्थ का प्रत्यक्ष मान लेती है। मन के पर्याय और अर्थ के पर्याय में लिंग और लिंगी का सम्बन्ध नहीं मानती। १. ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः । -तत्त्वार्थसूत्र, १.२४. १. वही, १.२५. ३. सर्वार्थ सिद्धि, १.६; तत्त्वार्थराजवार्तिक, १.२६.६-७. ४. विशेषावश्यकभाष्य, ८१४.
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