Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
२७१
ग्रन्थ लिखते हैं। ये ग्रन्थ अंगबाह्य ज्ञान के अन्तर्गत हैं। तात्पर्य यह है कि जिन ग्रन्थों के रचयिता स्वयं गणधर हैं वे अंगप्रविष्ट और जिनके रचयिता उसी परम्परा के अन्य आचार्य हैं वे अंगबाह्य ग्रन्थ हैं। अंगबाह्य ग्रन्थ कालिक, उत्कालिक आदि अनेक प्रकार के हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं। ये बारह अंग कहलाते हैं। इनके नाम पहले गिनाये जा चुके हैं। श्रुत वास्तव में ज्ञानात्मक है, किन्तु उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं क्योंकि वे ज्ञानोत्पत्ति के साधन हैं । श्रुतज्ञान के भेद मोटे तौर पर समझने के लिये हैं।
आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं। इसलिए उसके सारे भेद गिनाना सम्भव नहीं। श्रुतमान के चौदह मुख्य प्रकार हैं-अक्षर, संज्ञी, सम्यक्, सादिक, सपर्यवसित, गमिक और अंगप्रविष्ट ये सात और अनक्षर, असंज्ञी, मिथ्या, अनादिक, अपर्यवसित, अगमिक और अंगबाह्य ये सात इनसे विपरीत।' नन्दीसूत्र में इन भेदों का स्वरूप बताया गया है । अक्षर श्रुत के तीन भेद किये गये हैं-संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर । वर्ण का आकार संज्ञाक्षर है। वर्ण की ध्वनि व्यंजनाक्षर है। जो वर्ण सीखने में समर्थ है वह लब्ध्यक्षरधारी है। संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत है। लब्ध्यक्षर भावश्रुत है। खांसना, ऊँचा श्वास लेना आदि अनक्षरश्रुत है। संज्ञी श्रुत के भी तीन भेद हैं-दीर्घकालिकी, हेतूपदेशिकी और दृष्टिवादो देशिकी। वर्तमान, भूत और भविष्य त्रिकालविषयक विचार दीर्घकालिकी संज्ञा है। केवल १. आवश्यकनियुक्ति, १७-१६. २. नन्दीसूत्र, ३८.
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