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जैन धर्म-दर्शन वर्तमान की दृष्टि से हिताहित का विचार करना हेतुपदेशिकी संज्ञा है। सम्यक् श्रुत के ज्ञान के कारण हिनाहित का बोध होना दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है। जो इन संज्ञाओं को धारण करते हैं वे संजी कहलाते हैं। जो इन संजाओं को धारण नहीं करते वे अमंजी हैं । अमंजी तीन तरह के होते हैं। जो समनस्क होते हुए भी सोच नहीं सकते वे प्रथम कोटि के असंज्ञी हैं। जो अमनस्क हैं वे दूसरी कोटि के असंजी हैं । अमनस्क का अर्थ मनरहित नहीं है अपितु अत्यन्त सूक्ष्म मन वाला है । जो मिथ्याश्रत में विश्वास रखते हैं वे तीसरी कोटि के असंज्ञी हैं।' सादिक धुन वह है जिसकी आदि है। जिसकी कोई आदि नहीं है वह अनादिक श्रुत है । द्रव्यरूप से श्रुत अनादिक है और पर्यायरूप से सादिक है। सपर्यवसित श्रुत वह है जिसका अन्त होता है । जिसका कभी अन्त नहीं होता वह अपर्यवसित श्रुत है। यहाँ भी द्रव्य और पर्याय दृष्टि का उपयोग करना चाहिए । गमिक उसे कहते हैं जिसके सदश पाठ उपलब्ध हैं। अगमिक असदशाक्षरालापक होता है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के विषय में लिख ही चुके हैं।
श्रुतज्ञान का मुख्य आधार शब्द है। हस्तसंकेत आदि अन्य साधनों से भी यह ज्ञान होता है। वहाँ पर ये साधन शब्द का ही कार्य करते हैं । अन्य शब्दों की तरह उनका स्पष्ट उच्चारण कानों में नहीं पड़ता। मौन उच्चारण से ही वे अपना कार्य करते हैं। श्रुतज्ञान जब इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसके लिए संकेतस्मरण की आवश्यकता नहीं रह जाती तब वह मतिज्ञान के अन्तर्गत आजाता है। श्रुतज्ञान के लिए चिन्तन और १. वही, ३६-४०.
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