Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
होता है । क्षयोपशम तो सभी के लिए आवश्यक है । अन्तर साधन में है । जो जीव केवल जन्म मात्र से क्षयोपशम कर सकते हैं उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है । जिन्हें इसके लिए विशेष प्रयत्न करना पड़ता है उनका अवधिज्ञान गुणप्रत्यय है । गुणप्रत्यय अवधि के छः भेद होते हैं - अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित । '
जो अवधिज्ञान एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी नष्ट न हो, अपितु साथ-साथ जावे वह अनुगामी है ।
उत्पत्तिस्थान का त्याग कर देने पर जो नष्ट हो जाय वह अननुगामी है ।
जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय से क्रमशः बढ़ता जाय वह् वर्धमान है । यह वृद्धि क्षेत्र, शुद्धि आदि किसी भी दृष्टि से हो सकती है ।
जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय से परिणामों की विशुद्धि कम हो जाने के कारण क्रमशः अल्प-विषयक होता जाता है वह हीयमान है ।
जो न तो बढ़ता है और न कम होता है, अपितु जैसा उत्पन्न होता है वैसा का वैसा बना रहता है, जन्मान्तर के समय अथवा केवलज्ञान होने पर नष्ट होता है वह अवस्थित है।
जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी प्रकट होता है, कभी तिरोहित हो जाता है उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं ।
१. अनुगाम्यननुगामिवर्धमान हीयमानावस्थितानवस्थितभेदात् षड्विधः । -तत्वार्थ राजवार्तिक, १.२२.४.
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