Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन श्रुत नहीं हो जाता । अन्यथा ईहा, अवाय आदि भी श्रुत ही होते क्योंकि ये बिना शब्द-संसर्ग के उत्पन्न नहीं होते । मन में 'यह स्त्री का शब्द है या पुरुष का' यह विकल्प बिना अन्तर्जल्प के नहीं हो सकता। यह अन्तर्जल्प शब्द-संसर्ग है । शब्द-संसर्ग होते हुए जहाँ श्रुतानुसारित्व हो वह ज्ञान श्रुत है । श्रतानुसारी का अर्थ है-शब्द व शास्त्र के अर्थ की कार का अनुसरण करने वाला। अवधिज्ञान :... - आत्मा का स्वाभाविक गुण केवलज्ञान है । कर्म के आवरण की तरतमता के कारण यह ज्ञान विविध रूपों में प्रकट होता है। मति और श्रुत इन्द्रिय तथा मन की गहायता से उत्पन्न होते हैं, अतः वे आत्मा की दृष्टि से परोक्ष हैं। अवधि, मनःपर्यय
और केवल सीधे आत्मा से होते हैं, अतः उन्हें प्रत्यक्ष कहा गया है। केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है और अवधि और मनःपर्यय विकलप्रत्यक्ष हैं । अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान आत्मा से पैदा होते हैं इसलिए प्रत्यक्ष हैं किन्तु अपूर्ण हैं अतः विकल हैं । अवधि का अर्थ है 'सीमा' अथवा 'वह जो सीमित है' । अवधिज्ञान की क्या सीमा है ? अवधि का विषय केवल रूपी पदार्थ है।' जो रूप, रस, गन्ध और स्पर्शयुक्त है वही अवधि का विषय है। इससे आगे अरूपी पदार्थों में अवधि की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो छः द्रव्यों में से केवल एक द्रव्य अवधि का विषय हो सकता है। वह द्रव्य है पुद्गल, क्योंकि केवल पुद्गल ही रूपी है। अन्य पाँच द्रव्य उसके विषय नहीं हो सकते। .. .. ..
अवधिज्ञान के अधिकारी दो प्रकार के होते हैं-भवप्रत्ययी १. रूपिष्ववधैः । -तत्त्वार्थसूत्र, १. २८.
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