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ज्ञानमीमांसा
२७५ दोनों ज्ञान जीव में किसी-न-किमी मात्रा में हर समय रहते हैं । शक्तिरूप मे इनकी सत्ता सदैव रहती है। जीव की दृष्टि से यह सहचारित्व है, न कि किसी विशेष ज्ञान की दृष्टि से।
जिनभद्र कहते हैं कि जो ज्ञान श्रुतानुसारी है, इन्द्रिय और मन से पैदा होता है तथा नियन अर्थ को समझाने में समर्थ है वह भावथत है। शेष मति है। केवल शब्दज्ञान श्रुत नहीं है। जिस शब्दतान के पीछे श्रुनानमारी मंकेतस्मरण है और जो नियत अर्थ को समझाने में समर्थ है वही शब्दज्ञान श्रुत है। इसके अतिरिक्त जितना भी शब्दजान है, मब मति है। सामान्य शब्दज्ञान, जो कि केवल मतिजान है. बढ़ते-बढ़ते उपयुक्त स्तर तक पहुंचता है तभी वह श्रुतज्ञान बनता है। शब्दज्ञान होने से कोई भी शब्दज्ञान श्रुत नहीं हो जाता । श्रुन के लिए जो शर्ते हैं उन्हें पूरी करने पर ही शब्दज्ञान श्रुत बनता है। श्रुतज्ञान के प्रति कारण होने से शब्द को द्रव्यश्रुत कहा जाता है। वास्तव में भावश्रुत ही श्रुत है। वह आत्मसापेक्ष है. अतः श्रुतानुमारित्व, इन्द्रिय और मनोजन्य व्यापार और नियत अर्थ को समझाने का सामर्थ्य-ये सब बातें होना आवश्यक है । आगे इसी बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वना या श्रोता का वही ज्ञान श्रुत है जो श्रुतानुसारी है। जो ज्ञान श्रुतानुमारी नहीं है वह मति है। केवल शब्द-संसर्ग से ही ज्ञान १. इंदियमणोनिमिन, जं विण्णाणं सुगणुसारेण । निययत्युत्तिस मत्यं तं भावमुयं मई इयरा ॥
-विशेषावश्यकभप्य, १००. २. भणो मुणओ व सुयं तं जामह सुयाणुमारि विष्णाम् । दोण्ह पि सुयाईय, जं विण्णाणं तयं बुद्धी॥
-वही, १२१.
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