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ज्ञानमीमांसा संकेतस्मरण अत्यन्त आवश्यक है। अभ्यास दशा में ऐसा न होने पर वह ज्ञान श्रुत की कोटि से बाहर निकल कर मति की कोटि में आ जाता है। मति और श्रुत : ... जैन दर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक जीव में कम-सेकम दो ज्ञान-मति और श्रुत अवश्य होते हैं। केवलज्ञान के समय इन दोनों की स्थिति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उस समय भी मति और श्रुत की सत्ता मानते हैं और कहते हैं कि केवलज्ञान के महाप्रकाश के सामने उनका अल्प प्रकाश दब जाता है। सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश के रहते हुए चन्द्र आदि का प्रकाश नहींवत् मालूम होता है। कुछ लोग यह बात नहीं मानते । उनके मत से केवलज्ञान अकेला ही रहता है। मति, श्रुतादि क्षायोपशामिक हैं । जब सम्पूर्ण ज्ञानावरण का क्षय हो जाता है तब क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता । यह मत जैन दर्शन की परम्परा के अनुकूल है। केवलज्ञान का अर्थ ही अकेला ज्ञान है। वह असहाय ही होता है । उसे किसी की सहायता अपेक्षित नहीं है।
मति और श्रुत के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में उमास्वाति का मत है कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही होता है, जब कि मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुतपूर्वक ही हो।' नन्दीसूत्र का मत है कि जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान (मति) है वहाँ श्रुतज्ञान भी है और जहाँ श्रुतज्ञान है वहाँ मतिज्ञान भी
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१. श्रुतज्ञानस्य मतिज्ञानेन नियन: सहभावः तत्पूर्वकत्वात् । यस्य
श्रुतज्ञानं तस्य नियतं मतिज्ञानं, यस्य तु मतिज्ञानं तस्य ऋतज्ञानं स्थाद्वा न वेति ।-तत्त्वार्थ भाष्य, १.३१.
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