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ज्ञानमीमांसा व्यापार करती है। यही व्यापार उपयोग है। स्पर्शनेन्द्रिय का विषय स्पर्श है । रसनेन्द्रिय का विषय रस है। घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है । चक्षुरिन्द्रिय का विषय वर्ण है। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है ।' मन :
प्रत्येक इन्द्रिय का भिन्न-भिन्न विषय है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय का ग्रहण नहीं कर सकती। मन एक ऐसी सूक्ष्म इन्द्रिय है जो सभी इन्द्रियों के सभी विषयों का ग्रहण कर सकता है । इसलिए इसे सर्वार्थग्राही इन्द्रिय कहते हैं। इसको अनिन्द्रिय इसलिए कहा जाता है कि यह अत्यन्त सूक्ष्म है । अनिन्द्रिय का अर्थ इन्द्रिय का अभाव नहीं अपितु ईषत् इन्द्रिय है । जैसे अनुदरा कन्या का अर्थ बिना उदरवाली लड़की नही होता अपितु ऐसी लड़की होता है जिसका उदर गर्भभार सहन करने में असमर्थ है। उसी प्रकार चक्षुरादि के समान प्रतिनियत देश, विषय, अवस्थान का अभाव होने से मन को अनिन्द्रिय कहते हैं। इसका नाम अन्तःकरण भी है क्योंकि इसका अन्य इन्द्रियों की तरह कोई बाह्य आकार नहीं है। इसे सूक्ष्म इन्द्रिय इसलिए कहते हैं कि यह अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म है।
इन्द्रियों की तरह मन भी दो प्रकार का है-द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन पौद्गलिक है । भावमन लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार का है।
मतिज्ञान के विषय में एक शंका का समाधान करके फिर अक्ग्रहादि के विषय में लिखेंगे। शंका यह है कि मतिज्ञान की १. प्रमाणमीमांसा, १. २. २१-२३. २. सर्वार्थग्रहणं मनः । -वही, १. २. २४.
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