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शानमीमांसा
२५६ करता है। उसके बाद अर्थ और इन्द्रिय का संयोग होता है जिसे व्यंजनावग्रह कहते हैं । इन्द्रिय और अर्थ के संयोग के सम्बन्ध से पहले दर्शन कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यही हो सकता है कि उनका सम्बन्ध अवश्य होता है किन्तु वह सम्बन्ध व्यंजनावग्रह से भी पहले होता है। व्यंजनावग्रहरूप जो सम्बन्ध है वह ज्ञानकोटि में आता है और उससे भी पूर्व जो एक सत्ता सामान्य का सम्बन्ध है-सत्ता सामान्य का भान है वह दर्शन है। इसके अतिरिक्त और क्या समाधान हो सकता है, यह हम नहीं जानते ।।
अर्थावग्रह का पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो इन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर उत्पन्न होता है और क्रमशः पुष्ट होता जाता है, व्यंजनावग्रह कहलाता है। यह ज्ञान अव्यक्तज्ञान है। यह ज्ञान क्रमश: किस प्रकार पुष्ट होता है और अर्थावग्रह की कोटि में आता है, यह समझने के लिए एक उदाहरण देना ठीक होगा। कुम्भकार ने अपने आवाप ( अवाड़ा) में से एक ताजा शराव (सकोरा) निकाला, निकालकर उसमें एक-एक बूंद पानी डालता गया। प्रथम बिन्दु डालते ही सूख गया। दूसरा विन्दु भी सूख गया। तीसरा, चौथा और इस तरह अनेक बिन्दु सूखते गए। अंततोगत्वा एक समय ऐसा आता है जब वह शराव पानी को सुखाने में असमर्थता दिखाने लगता है। धीरे-धीरे वह पानी से भर जाता है। प्रथम विन्दु से लगाकर अंतिम बिन्दु तक का सारा पानी शराव में होता है, किन्तु पहले कुछ बिन्दुओं की इतनी कम शक्ति होती है कि वे स्पष्ट रूप से दिग्वाई नहीं देते । ज्यों-ज्यों पानी की शक्ति बढ़ती जाती है त्यों-त्यों उसकी अभिव्यक्ति भी स्पष्ट होती जाती है। इसी तरह जब कि पी सोये हुए व्यक्ति को पुकारा जाता है तब पहले के कुछ शब्द कान में जाकर चुपचाप बैठ जाते हैं। उनकी अभिव्यक्ति नहीं
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