Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन त्मक है । जो परम्परा इस ज्ञान को निषेधात्मक मानती है उसमें अधिकतर अपाय शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस परम्परा में इसका विध्यात्मक विधान भी है उसमें अधिकतर अवाय शब्द का प्रयोग हुआ है। यह ज्ञान धारणा की कोटि में पहुंच कर ही पक्का होता है, इसलिए यह मतभेद है। अवाय में कुछ कमी अवश्य रहती है । विध्यात्मक मानकर भी उसकी दृढ़ावस्था धारणा में ही मानी गई है। इसलिए इन दोनों परम्पराओं में विशेष भेद नहीं रह जाता। .. धारणा :
अवाय के बाद धारणा होती है। धारणा में ज्ञान इतना दृढ़ हो जाता है कि वह स्मृति का कारण बनता है । इसीलिए धारणा को स्मृति का हेतु कहा गया है। यह संख्येय अथवा असंख्येय समय तक रहती है।४ नंदीसूत्र में धारणा के लिए इन शब्दों का प्रयोग हुआ है--धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा, कोष्ठा। उमास्वाति ने निम्नलिखित पर्याय दिए हैं-प्रतिपत्ति, अवधारणा, अवस्थान, निश्चय, अवगम, अवबोध ।५ जिनभद्र ने धारणा की व्याख्या करते हुए कहा है कि ज्ञान की अविच्युति को धारणा कहते हैं । जो ज्ञान शीघ्र ही नष्ट न हो जाय अपितु स्मृति के लिए हेतु का कार्य कर सके, वही ज्ञान धारणा है। यह धारणा तीन प्रकार की है : १. अविच्युति-पदार्थ के ज्ञान का विनाश न होना; २. वासना-संस्कार का निर्माण होना; १. सर्वार्थ सिद्धि, राजघातिक आदि. २. तत्त्वार्थ-भाग्य, हारिभद्रीय टीका, सिद्धसेनीय टीका. ३. स्मृतिहेनुर्धारणः ।-प्रमाण मीमांसा, १.१.२६, ४. ३५.
६. अविच्चुइ धारणा रस ।-विशेषावश्यक-भाष्य, १८०.
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