Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
२६३ अवाय:
ईहितार्थ का विशेष निर्णय अवाय है।' ईहा में हमारा ज्ञान यहाँ तक पहुँच जाता है कि यह शब्द किसी स्त्री का होना चाहिए । जब यह निश्चित हो जाता है कि यह शब्द स्त्री का ही है तब हमारा ज्ञान अवाय की कोटि तक पहुँच जाता है। इसमें सम्यक्-असम्यक् की विचारणा पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाती है और असम्यक् का निवारण होकर सम्यक् का निर्णय हो जाता है। जो गुण वास्तविक हैं उनका निश्चित ज्ञान हो जाता है, और जो गुण अवास्तविक हैं उनका पृथक्करण हो जाता है। विशेषावश्यकभाप्य में एक मत यह भी मिलता है कि जो गुण पदार्थ के अन्दर नहीं हैं उनका निवारण अवाय है और जो गुण पदार्थ में हैं उनका स्थिरीकरण धारणा है । भाष्यकार के मत से यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। चाहे असद्गुणों का निवारण हो, चाहे सद्गुणों का स्थिरीकरण हो, चाहे दोनों एक साथ हों--सब अवायान्तर्गत हैं। नन्दीसूत्र में अवाय के निम्न पर्याय हैं--आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि, विज्ञान । तत्त्वार्थभाष्य में अवाय के लिए निम्न शब्दों का प्रयोग हुआ है--अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत ।" ये शब्द निषेधात्मक हैं। विशेषावश्यकभाष्य में जिस मत का उल्लेख है , सम्भवतः वह यही परम्परा हो । अवाय और अपाय दोनों शब्दों को देखने से मालूम होता है कि अपाय निषेधात्मक है और अवाय विध्या१. ईहितविशेषनिर्ण योऽवायः। ---प्रमाण मीमांसा, १.१.२८, २. १८५. ३. १८६. ४. ३२.
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