Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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शानमीमांसा और ईहा के अनिश्चय से इसमें भेद है। इसमें अमुक पदार्थ है-ऐसा निश्चय होते हुए भी उसके विशेष गुणों के प्रति सन्देह रहता है। असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त-ऐसा पाठ मानने वाले अनुक्त का अर्थ करते हैं अभिप्राय मात्र से जान लेना और उक्त का अर्थ करते हैं कहने पर ही जानना । ध्रुव का अर्थ है-अवश्यम्भावी ज्ञान और अध्रुव का अर्थ है-कदाचित्भावी ज्ञान । इन बारह भेदों में चार भेद प्रमेय की विविधता पर अवलम्बित हैं और शेष आठ भेद प्रमाता के क्षयोपशम की विविधता पर आश्रित हैं। उपर्युक्त २८ भेदों में से प्रत्येक के १२ भेद होने पर कुल २८ x १२%3 ३३६ भेद हो जाते हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के ३३६ भेद हैं । इसका विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है :
मतिज्ञान
-
अवग्रह
ईहा
अवाय
धारणा
व्यंजना- अर्था- ११. स्पर्शन १७. स्पर्शन २३. स्पर्शन वग्रह वग्रह १२. रसन १८. रसन २४. रसन
। १३. घ्राण १६. घ्राण २५. घ्राण १. स्पर्शन ५. स्पर्शन १४. श्रोत्र २०. श्रोत्र २६. श्रोत्र २. रसन ६. रसन १५. चक्षु २१. चक्षु २७. चक्षु ३. घ्राण ७. घ्राण १६. मन २२. मन २८. मन ४. श्रोत्र ८. श्रोत्र
६. चक्षु १०. मन
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