Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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शानमीमांसा
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ज्ञान के लिए निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया है-ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा ।' नंदीसूत्र में भी ये ही शब्द हैं। मतिज्ञान का लक्षण बताते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है । स्वोपज्ञभाष्य में मतिज्ञान के दो प्रकार बताए गए हैं-इन्द्रियजन्यज्ञान और मनोजन्यज्ञान । ये दो भेद उपर्युक्त लक्षण से ही फलित होते हैं। सिद्धसेनगणि की टीका में तीन भेदों का वर्णन है-इन्द्रियजन्य, अनिन्द्रियजन्य (मनोजन्य) और इन्द्रियानिन्द्रियजन्य । इन्द्रियजन्य ज्ञान केवल इन्द्रियों से उत्पन्न होता है । अनिन्द्रियजन्य ज्ञान केवल मन से पैदा होता है । इन्द्रियानिन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन दोनों का संयुक्त प्रयत्न आवश्यक है। ये तीन भेद भी उपर्युक्त सूत्र से ही फलित होते हैं।
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__ अकलंक ने सम्यग्ज्ञान ( प्रमाण ) के दो भेद किए हैंप्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-मुख्य और सांव्यवहारिक । मुख्य को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक को इन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्ष का नाम भी दिया है ।" इन्द्रिय प्रत्यक्ष के चार भेद किए गए हैं--अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध में विभक्त किया है। श्रुत, अर्थापत्ति, अनुमान, उपमान १. विशेषावश्यकभाष्य, ३६६. २. तदिन्द्रियानिन्द्रियमिमित्तम् , १.१४. ३. तत्त्वार्थभाष्य, १.१४. ४. तत्त्वार्थसूत्र पर टीका, १.१४. ५. लघीयस्त्रय, ३-४.
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