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जैन धर्म-दर्शन
प्रत्यक्ष में वास्तविक प्रत्यक्ष रखा गया, जो इन्द्रियाश्रित न होकर सीधा आत्मा से उत्पन्न होता है । इन्द्रियप्रत्यक्ष जैनेतर दृष्टि का, जिसे हम लौकिक दृष्टि कह सकते हैं, प्रतिनिधित्व करता है । नोइन्द्रियप्रत्यक्ष जैन दर्शन की वास्तविक परम्परा का द्योतक है ही ।
आभिनिबोधिकज्ञान के अवग्रहादि भेदों का बाद के तार्किकों ने भी अच्छा विश्लेषण किया है । स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि की इन तार्किकों ने दार्शनिक भूमिका पर जिस ढंग से व्याख्या की है वैसी व्याख्या आगमकाल में नहीं मिलती । इसका कारण दार्शनिक संघर्ष है । आगमकाल के बाद जैन दार्शनिकों को अन्य दार्शनिक विचारों के साथ काफी संघर्ष करना पड़ा और उस संघर्ष के परिणामस्वरूप एक नए ढंग के ढांचे का निर्माण हुआ । इस ढाँचे की शैली और सामग्री दोनों का आधार दार्शनिक चिंतन रहा । सर्वप्रथम हम पाँचों ज्ञानों का स्वरूप देखेंगे । इसके लिए आवश्यकतानुसार आगमग्रंथ और दार्शनिक ग्रंथ दोनों का उपयोग किया जाएगा । तर्कशास्त्र और प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान आदि का विवेचन प्रमाणचर्चा के समय किया जाएगा। इस विवेचन का मुख्य आधार प्रमाणशास्त्र से सम्बन्धित दार्शनिक ग्रंथ होंगे ।
मतिज्ञान :
हम देख चुके हैं कि आगमों में मतिज्ञान को आभिनिबोधिकज्ञान कहा गया है । उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध को एकार्थक बताया है ।' भद्रबाहु ने मति१. मति: स्मृति: संज्ञा चिन्ताऽसि निबोध इत्यनर्थान्तरम् ।
--तस्वार्थसूत्र १.१३.
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