Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन को कम नहीं किया जा सकता अर्थात् वे अकाल मृत्यु से नहीं मर सकते। देव :
देव एक विशेष प्रकार की शय्या पर जन्म लेते हैं। वे गर्भज नहीं होते, अकाल मृत्यु से नहीं मरते, परिवर्तनशील शरीर धारण करते हैं तथा पहाड़ों एवं सागरों से घिरे हुए धरातल के विभिन्न भागों में स्वतन्त्र विचरते और आनन्द लेते हैं। इनमें अद्भुत पराक्रम होता है। देवों के चार प्रकार होते हैं : भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनके क्रमशः १०, ८,५ और १२ उपभेद हैं। वे स्वर्ग जिनमें इन्द्र, सामानिक आदि पद होते हैं, कल्प कहे जाते हैं। कल्पों में उत्पन्न देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं। कल्पों से ऊपर कोई पदविभाजन नहीं होता। अतः ऐसे स्वर्गों में उत्पन्न होनेवाले देव कल्पातीत कहे जाते हैं। ये सब देव समान होते हैं। ये सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। किसी निमित्त से मनुष्यलोक में जाने का प्रसंग उपस्थित होने पर कल्पोपपन्न देव ही.जाते हैं, कल्पातीत नहीं। भवनवासी तथा ऐशान कल्प तक के अन्य देव वासनात्मक सुख-भोग मनुष्यों की भांति ही करते हैं। सानत्कुमार तथा माहेन्द्र कल्प के देवगण देवियों के शरीर का मात्र स्पर्श करके कामसुख प्राप्त करते हैं। ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव और कापिष्ठ कल्पों के देव देवियों की सुन्दरता को देखकर ही अपनी वासना की पूर्ति करते हैं। शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार कल्पों में देवलोग सिर्फ देवियों का मधुर गान आदि सुनकर ही अपनी वासना को तृप्त करते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों के देवगण मात्र १. तत्त्वार्थसूत्र, २. ५२; ३. ३-५; समवायांग, १५.
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