Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन विप्लव न करना, ३०. अन्य राज्य की सेना का उपद्रव न होना, ३१. अधिक वर्षा न होना, ३२. वर्षा का अभाव न होना, ३३. दुभिक्ष न होना, ३४. पूर्वोत्पत्र उत्पात तथा व्याधियों का उपशान्त होना। तिर्यञ्च :
तिर्यञ्च प्राणियों के दो भेद होते हैं-त्रस ( चल ) तथा स्थावर ( अचल ) । स्थावर के पाँच प्रकार होते है-पृथ्वीकाय, अकाय, तेजस्काय, वायु काय तथा वनस्पतिकाय । ये पुनः अनेक उपभेदों में विभक्त होते है। ये सूक्ष्म अथवा स्थूल होते हैं। पृथ्वीकाय में इनका ममावेश होता है-मिट्टी, कंकड़, बाल, पत्थर, पथरीला नमक, लोहा, ताँबा, चाँदी, सोना, हीरा आदि । जल, ओसकण, कुहरा आदि अप्काय हैं । अग्नि, बिजली आदि की गिनती तेजस्काय में होती है। धीमी हवा, धनी हवा, तेज हवा आदि वायुकाय की श्रेणी में आते हैं। वनस्पतिकाय में बहुतों का एक ही सामान्य शरीर ( साधारण शरीर ) होता है या सबके अलग-अलग शरीर ( प्रत्येक शरीर ) होते हैं।
त्रस जीवों के चार प्रकार होते हैं-दो इन्द्रियोंवाले, तीन इन्द्रियोंवाले, चार इन्द्रियोंवाले तथा पांच इन्द्रियोंवाले । कीट, सीप,घोंघा आदि को दो इन्द्रियां(स्पर्शन और रसन)होती हैं। खटमल आदि को तीन इन्द्रियां (स्पर्शन, रसन और घ्राण) होती हैं। मक्खी. मच्छर, आदि को चार इन्द्रियां (स्पर्शन, रसन, घ्राण तथा चक्षु) होती हैं। पंचेन्द्रिय (स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा श्रोत्र ) जीवों के दो भेद होते हैं-सम्मूच्छिम अर्थात् वे जो बिना गर्भ के सहज उत्पन्न होते हैं और गर्भज अर्थात् वे जो गर्भ द्वारा जन्म लेते हैं। इनमें से भी प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार होते हैं—पानी में रहनेवाले (जलचर), भूमि पर रहनेवाले (स्थलचर) तथा वायु यानी आकाश में रहनेवाले ( नभचर)।
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