Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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ज्ञानमीमांसा
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ही जानता है ।" आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं, अतः केवल आत्मा को जानता है, इसका अर्थ यह हुआ कि केवली अपने ज्ञान को जानता है । अपने ज्ञान को कैसे जाना जा सकता है ? उसके लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता रहने पर अनवस्था होती है। ज्ञान स्वयं को स्वयं से जानता है, यह बात जल्दी समझ में नहीं आती। कोई भी चतुर नट अपने खुद के कन्धों पर नहीं चढ़ सकता । अग्नि अपने आप को नहीं जला सकती । जैन दर्शन मानता है कि ज्ञान अपने आप को जानता हुआ ही दूसरे पदार्थों को जानता है । वह दीपक की तरह स्वयं प्रकाशक है । तात्पर्य यह है कि आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है । इसीलिए ज्ञान का इतना महत्त्व है ।
आगमों में ज्ञानवाद :
आगमों में ज्ञान सम्बन्धी जो मान्यताएँ मिलती हैं वे बहुत प्राचीन हैं । सम्भवतः ये मान्यताएँ भगवान् महावीर के पहले की हों। पंचज्ञान की चर्चा आगम साहित्य में मिलती है । उसके विषय में राजप्रश्नीय सूत्र में एक वृत्तान्त मिलता है। श्रमण केशिकुमार अपने मुख से कहते हैं - हम श्रमण निर्ग्रन्थ पाँच प्रकार के ज्ञान मानते हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान । केशिकुमार पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु थे । उन्होंने अपने मुख से पाँच ज्ञानों का
१. जाणदि पस्सदि सळां, ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाण दि, पस्सदि नियमेण अप्पाणं ॥
- नियमसार, १५८. २. एवं खु पएसी अम्हं समणाणं निम्गंथागं पंचविहे नाणे पण्णत्ते । तंजा -- अभिणि वोहियनाणे, सुयनाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे केवलणाणे | १६५.
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