Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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तत्त्वविचार
२४३ स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होना, १०. तीर्थङ्कर देव के आगे आकाश में इन्द्रध्वज का चलना, ११. जहाँ-जहाँ अरहंत भगवंत ठहरते हैं या बैठते हैं वहाँ उसी क्षण पत्र, पुष्प, और पल्लव से सुशोभित छत्र, ध्वज, घंट एवं पताका सहित अशोक वृक्ष का उत्पन्न होना, १२. कुछ पीछे मुकुट के स्थान पर तेजोमंडल का होना तथा अन्धकार होने पर दस दिशाओं में प्रकाश होना, १३. जहाँ-जहाँ पधारें वहाँ-वहाँ के भूभाग का समतल होना, १४, कंटको का अधोमुख होना, १५. ऋतुओं का अनुकूल होना, १६. संवर्तक वायु द्वारा एक योजन पर्यन्त क्षेत्र का शुद्ध हो जाना, १७. मेघ द्वारा रज का उपशान्त होना, १८. जानुप्रमाण देवकृत पुष्पों की वृष्टि होना एवं पुष्पों के डंठलों का अधोमुख होना, १६. अमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का न रहना, २०. मनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श का प्रकट होना, २१. योजन पर्यन्त सुनाई देनेवाला हृदयस्पर्शी स्वर होना, २२. अर्धमागधी भाषा में उपदेश करना, २३. अर्धमागधी भाषा का उपस्थित आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरिसृपों की भाषा में परिणत होना तथा उन्हें हितकारी, सुखकारी एवं कल्याणकारी प्रतीत होना, २४. पूर्वभव के वैरानुबन्ध से बद्ध देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किंनर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व और महोरग का अरहंत के समीप प्रसन्नचित्त होकर धर्म सुनना, २५. अन्यतीथिकों का नतमस्तक होकर वन्दना करना, २६ अरहंत के समीप आकर अन्यतीर्थिकों का निरुत्तर होना, २७. जहाँ-जहाँ अरहंत भगवंत पधारें वहाँवहाँ पच्चीस योजन पर्यन्त चूहे आदि का उपद्रव न होना, २८. प्लेग आदि महामारी का उपद्रव न होना, २६. स्वसेना का
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