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तत्वविचार
२४१ ज्ञान, रूप-परिवर्तन, तप, बल, औषधशक्ति, साधारण भोजन को स्वादिष्ट वना देने का असाधारण सामर्थ्य एवं व्यक्तियों की संख्या बढ़ जाने पर भी सामग्री को समाप्त न होने देने की शक्ति के आधार पर प्रथम के सात उपभेद होते हैं । क्षेत्र, जाति, कर्म, चारित्र और श्रद्धा के आधार पर दूसरे पांच प्रकार के होते हैं । म्लेच्छ भी दो प्रकार के होते हैं- एक जो अन्तद्वीपों में जन्म लेते हैं और दूसरे जो कर्मभूमियों में जन्म लेते हैं । अन्तद्वीपों की संख्या छप्पन है तथा कर्मभूमियों की संख्या पन्द्रह है ( पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच विदेह ) | देवकुरु, उत्तरकुरु, हेमवत, हरि, रम्यक, हैरण्यवत और अन्तद्वीप भोगभूमि के नाम से सम्बोधित होते हैं । कर्मभूमि में पुरुषार्थ की प्रधानता होती है । भोगभूमि में आवश्यकता की सभी वस्तुएं कल्पवृक्षों से प्राप्त होती हैं । आर्यलोग कर्मभूमि के सभ्य क्षेत्रों में ही जन्म लेते हैं । म्लेच्छ कर्मभूमि के असभ्य क्षेत्रों तथा भोगभूमि के समस्त क्षेत्रों एवं अन्तद्वीपों में रहते हैं । केवल आर्यक्षेत्र में ही तीर्थंकर का प्रादुर्भाव होता है और आर्यलोग ही उनके उपदेशों से लाभान्वित होते हैं। मात्र कर्मभूमि में ही मुक्ति संभव होती है । भोगभूमि सिर्फ सांसारिक वस्तुओं को भोगने का स्थान है । वह संन्यास या संयम के अनुकूल नहीं होती, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है । भोगभूमि में कोई भी सांसारिक सुख त्यागकर आत्मसंयम की बात नहीं सोचता । भोगभूमि के लोग सदा सांसारिक सुखों के पीछे पड़े रहते हैं । अतः वे मुक्ति पाने में असमर्थ होते हैं। यहां तक कि देवताओं को भी मोक्ष पाने के लिए कर्मभूमि में जन्म लेना पड़ता है । '
1. Sacred Books of the East, Vol. XXII, p. 195fn. etc.
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