Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
उनसे भी तीन योजन अधिक ऊंचे अंगारक तथा उनसे भी तीन योजन अधिक ऊँचे शनैश्चर हैं । ये ज्योतिष्क देव मेरु पर्वत के चारों ओर मनुष्यक्षेत्र के अन्तर्गत, जो कि ढाई द्वीपों और दो सागरों तक है, सदा गतिमान रहते हैं। मनुष्यक्षेत्र से बाहर ये स्थिर रहते हैं। जम्बूद्वीप में २, लवणसमुद्र ४, धातकीखण्ड में १२, कालोदधि में ४२ और पुष्करार्ध में ७२ इस प्रकार कुल मिलाकर मनुष्यक्षेत्र में १३२ सूर्य और १३२ ही चन्द्र हैं । समय- विभाजन इन ज्योतिर्मय देवों की गति से ही निर्धारित होता है ।"
वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं: कल्पों में जन्म लेने वाले अर्थात् कल्पोपपन्न और कल्पों से परे जन्म लेनेवाले अर्थात् कल्पातीत । कल्पों में रहनेवाले देवों के १२ इन्द्र हैं । जो कल्पों से परे जन्म लेते हैं उनके इन्द्र आदि नहीं होते । ऊपर-ऊपर के वैमानिक देव नीचे-नीचे के वैमानिक देवों से आयु, बल, सुख, तेज आदि की दृष्टि से श्रेष्ठतर होते हैं ।
कल्पोपपत्र देवों में निम्नोक्त १० पद होते हैं : १ इन्द्र-जो सामानिक आदि सब प्रकार के देवों के स्वामी हों, २. सामानिक जो समृद्धि में इन्द्र के समान हों किन्तु जिनमें इन्द्रत्व न हो. ३. त्रास्त्रिरा- जो मंत्री का काम करते हों, ४. पारिषद्य-जो मित्र का काम करते हों, ५. आत्मरक्ष-जो शस्त्र उठाये पीछे खड़े रहते हों, ६. लोकपाल- जो सीमा की रक्षा करते हों, ७. अनीक - जो सैनिकरूप हों, ८. प्रकीर्णक- जो नागरिक के समान हों, E. अभियोग्य - जो सेवक के तुल्य हों, १०. किल्विषिक- जो अन्त्यज के समान हों । भवनपतियों में भी ये दस पद होते हैं ।
१. वही, ४. १२-१५; धवला, पुस्तक ४, पृ० १५०-१५१. २. तत्त्वार्थ सूत्र, ४.१८, २१.
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