Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
जाता है । इसी प्रकार सुख-दुःखादि के वैषम्य को देखकर तत्कारणरूप कर्मों का अनुमान करना युक्तिसंगत है ।
यहाँ उठ सकता है । चन्दन, अंगनादि के संयोग व्यक्ति सुख की प्राप्ति होती है और विष, कण्टक, सर्पा से दुःख मिलता है । ये प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले कारण ही सुख और दुःख के कारण हैं । ऐसी दशा में हम अदृश्य कारणों की कल्पना क्यों करें ? जो कारण दिखाई देते हैं उन्हें छोड़कर ऐसे कारणों की कल्पना करना जो अप्रत्यक्ष हैं, ठीक नहीं। प्रश्न बहुत अच्छा है किन्तु उसमें थोड़ा-सा दोष है । दोष यह है कि वह व्यभिचारी है । यह हमारा प्रतिदिन का अनुभव है कि एक ही प्रकार के साधनों के रहते हुए एक व्यक्ति अधिक सुखी होता हैं, दूसरा कम सुखी होता हैं, तीसरा दुःखी होता है । समान साधनों से सबको समान सुख नहीं मिलता। यही बात दुःख के साधनों के विषय में भी कही जा सकती हैं। ऐसा क्यों होता है ? इसके लिए किसी-न-किसी अदृष्ट की कल्पना करनी पड़ती हैं । जिस प्रकार हम युवकदेह को देखकर बाल देह का अनुमान करते हैं उसी प्रकार बालदेह को देखकर भी किसी अन्य देह का अनुमान करना चाहिए । यह देह 'कार्मण शरीर' है ।" यह परम्परा अनादिकाल से चली आती है ।
हम शरीररूप कार्य से कर्मरूप कारण का अनुमान करते हैं । शरीर भौतिक है - पौद्गलिक है ऐसी दशा में कर्म भी पौद्गलिक ही होने चाहिएं क्योंकि पौद्गलिक कार्य का कारण भी पौद्गलिक ही हो सकता है। जैन दर्शन तर्क की इस मांग का समर्थन करता है तथा कर्म को पौद्गलिक सिद्ध करने के लिए निम्न हेतु उपस्थित करता है
१. विशेषावश्यकभाष्य, १६१४.
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